श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 113 –  जीवन यात्रा : 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शिशु वत्स का अगला पड़ाव होता है स्कूल, पर इसके पहले, जन्म के 4-5 या आज के हिसाब से 3-4 साल तक उसमें एक और भी नैसर्गिकता होती है “उत्सुकता ” हर नई वस्तु चाहे वो किसी भी प्रकार की हो, स्थिर हो या चलित, श्वेत हो या धूमल, चींटी से लेकर हाथी तक और साईकल से लेकर ✈ तक, जो भी दिखेगा वो जरूर उसके बारे में पूछता रहेगा, पूछता रहेगा जब तक कि आप उसे जवाब नहीं दे देते. “ये क्या है, ये क्यों है याने what is this and why is this. बच्चों की यह उत्सुकता उनके नैसर्गिक विकास का ही अंग होती है पर अभिभावक हर वक्त उसके क्या और क्यों का जवाब नहीं दे पाते, कभी कभी जवाब मालुम भी नहीं होते तो बच्चों को कुछ भी समझाकर या डांटकर चुप करा देते हैं. पर होता ये बहुत गलत है क्योंकि ये उसकी प्रश्न करने की नैसर्गिक क्षमता को कमजोर बनाता है. प्रश्न का गलत उत्तर, पेरेंट्स पर अविश्वास करना सिखाता है जब आगे चलकर उसे सही उत्तर पता चलते हैं. जन्म और पोषण बहुत धैर्य, समझ, और सहनशीलता मांगते हैं, जितनी कम होती है, परिणाम भी वैसे ही मिलते हैं. नैसर्गिक प्रतिभा को दबाना सबसे बड़ा अपराध है जो माता पिता अनजाने में कर देते हैं. स्कूलिंग प्रारंभ होने के पहले के ये दो तीन साल बहुत महत्वपूर्ण होते हैं जिसे कोई भी पैरेंट गंभीरता से नहीं लेते, बच्चे उनके लिये उपलब्धि और मनोरंजन का साधन बन जाते हैं हालांकि “बच्चे को क्या बनाना है वाली” दूसरी हानिकारक सोच अभी आई नहीं है पर आती जरूर है.

स्कूल का आगमन भी बच्चों की नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया में अवरोध का काम ही करते हैं. आपको ये कथन आश्चर्यजनक लगेगा और इससे सहमत होने का तो सवाल ही नहीं होगा पर सच यही है. स्कूल नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया के अंग नहीं होते. पहली बात तो ये होती है कि बच्चे कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकल कर अनजान परिसर, अनजान वयस्कों याने शिक्षकगण और अनजान सहपाठियों के बीच में असुरक्षित महसूस करता है और यहीं से उसके बाल्य जीवन में प्रवेश करते हैं अनुशासन के साथ साथ डर और असुरक्षा. स्कूल समय की जरूरत हैं ये तो सब वयस्क जानते हैं पर जो नहीं जानता वो है वही बालक जिसे स्कूल जाना पड़ता है. शिक्षण में अतिक्रमित करती व्यवसायिकता ने स्कूल जाने की उम्र विभिन्न विद्यालयीन शब्दावली जैसे किंडर गार्डन, प्रि-स्कूल, नर्सरी के नाम पर घटा दी है जो बच्चों के नैसर्गिक विकास से प्रायोजित और योजनाबद्ध विकास की यात्रा कही जा सकती है. परंपरागत व्यवहारिकता और जमाने के हिसाब से ही आधुनिकता में लिपटी कैरियर प्रोग्रेसन की लालसा गलत है, ये सही नहीं है. पर ये निश्चित है स्कूल बच्चों से उत्सुकता और प्रश्न करने की आदत छीन लेते हैं क्योंकि यहां प्रश्न टीचर करते हैं जिनका उत्तर उसे समझना या फिर रटना पड़ता है. प्रश्न पूछने की ये झिझक और डर ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती और इस कारण ही लोग फ्रंट बैंचर बनने से बचने लगते हैं. दूसरा “रटना” याने समझ नहीं आये तो रट लो या फिर जैसा पहले वाले ने किया है उसी का अनुसरण करते रहो. समाज में इसीलिये भाई, भैया, बड़े भाई और ऑफिस में सीनियर्स का आँखबंद कर अनुसरण करना, स्कूल के जमाने से रोपित इस असुरक्षा से राहत महसूस कराने लगता है. ये जो दुनियां के बड़े बड़े वैज्ञानिक, खिलाड़ी, नेता, बने हैं वो सिर्फ इसलिए बन पाये कि स्कूल के अनुशासित और योजनाबद्ध कार्यक्रम को कभी भी अपने व्यक्तित्व ऊपर हावी नहीं होने दिया. जो सही लगा वही करने के लिये जोखिम की परवाह नहीं की और दुनियां से लड़ गये और वो किया जो वो चाहते थे. जिनको बाद में उसी दुनियां के उन्हीं लोगों ने सर पर बिठाया, पूजा की हद तक उनकी प्रशंसा की. वो इसलिए संभव हुआ कि उनमें असुरक्षा, भय की भावना नहीं संक्रमित हो पाई तब ही तो ज़िद और ज़ुनून उनकी शख्सियत का हिस्सा बने. वो रटना नहीं चाहते थे बल्कि वो समझ गये थे कि रटना, आंख बंद कर किसी का अनुसरण करना ये शब्द उनके लिये नहीं बने हैं. जि़द और ज़ुनून ही उनकी खासियत बनी और ये जुनून ही तेंदुलकर को कॉलेज की जगह क्रिकेट के मैदान की ओर और माही याने धोनी को रेल्वे की सुरक्षित नौकरी छोड़ने के निर्णय की ओर ले जा सका. इसके होने का प्रतिशत बहुत कम होता तो है पर यही वो लोग होते हैं जो लीक से हटकर चलने के उनके नैसर्गिक गुण से संपन्न होते हैं.

यात्रा जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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