डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू करता एक गीत  “कितना बचेंगे…..जो आज भी समसामयिक  एवं विचारणीय  है । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 39 ☆

☆ कितना बचेंगे….. ☆  

 

काल की है अनगिनत

परछाईयाँ

कितना बचेंगे।

 

टोह लेता है, घड़ी पल-छिन दिवस का

शून्य से सम्पूर्ण तक के  झूठ – सच का

मखमली है पैर या कि

बिवाईयां है

चलेंगे विपरीत, सुनिश्चित है

थकेंगे  ।  काल की…….

 

कष्ट भी झेले, सुखद सब खेल खेले

गंध  चंदन  की, भुजंग मिले  विषैले

खाईयां है या कि फिर

ऊंचाईयां है

बेवजह तकरार पर निश्चित

डसेंगे  । काल की………….।

 

विविध चिंताएं, बने चिंतक सुदर्शन

वेश धर कर  दे रहे हैं, दिव्य प्रवचन

यश, प्रशस्तिगान संग

शहनाईयां है

छद्म अक्षर, संस्मरण कितने

रचेंगे  । काल की…………..।

 

लालसाएं लोभ अतिशय चाह में सब

जब कभी ठोकर  लगेगी, राह में तब

छोर अंतिम पर खड़ी

सच्चाइयां है

चित्र खुद के देख कर खुद ही

हंसेंगे  ।

काल की है अनगिनत परछाईयाँ

कितना बचेंगे।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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