डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य नाटिका – ‘चढ़ता रिश्तेदार‘ इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 254 ☆

☆ व्यंग्य नाटिका ☆ चढ़ता रिश्तेदार

 (एक कमरा। खिड़की से धूप आ रही है। कमरे में एक पलंग पर मुंह तक चादर ताने एक आदमी सोया है। गृहस्वामी का प्रवेश।)

मेज़बान- उठिए भाई साहब, धूप चढ़ आयी। आठ बजे का भोंपू बज गया। फैक्टरी वाले काम पर गये।

मेहमान- (कुनमुनाकर चेहरे पर से चादर हटाता है। आंखें मिचमिचाकर) अभी नहीं उठूंगा। कल बात-बात में मुंह से निकल गया कि मेरा आज सवेरे लौटने का विचार है तो आप मुझसे पीछा छुड़ाने में लग गये? मुझे टाइम मत बताइए। मुझे अभी नहीं जाना है।

मेज़बान- (क्षमा याचना के स्वर में) आप मुझे गलत समझे। मैं भला क्यों चाहूंगा कि आप लौट जाएं? आपके पधारने से तो मुझे बड़ी खुशी हुई है। कितने दिन बाद पधारे हैं आप। मैं तो यही चाहता हूं कि आप हमें और कुछ दिन अपने संग का सुख दें।

मेहमान- साहित्यिक भाषा मत झाड़िए।  मैं आपके मन की बात जानता हूं। मेहमानदारी करते मेरी उमर गुज़र गयी। हर तरह के मेज़बानों से निपटा हूं। आप तो रोज पूजा के वक्त घंटी हिलाने के साथ प्रार्थना करते हैं कि मैं जल्दी यहां से दफा हो जाऊं। आपकी पत्नी रोज आपसे झिक-झिक करती है कि मैं अंगद के पांव जैसा जमकर बैठा  आपका राशन क्यों नष्ट कर रहा हूं। लेकिन मैं अभी जाने वाला नहीं। आपकी प्रार्थना से कुछ नहीं होने वाला।

मेज़बान- हरे राम राम। आप तो मुझे पाप में घसीट रहे हैं। मैं तो रोज यही प्रार्थना करता हूं कि आप बार-बार हमारे घर को पवित्र करें। मेरी पत्नी आपकी सेवा करके कितना सुख महसूस करती है आपको कैसे बताऊं। यकीन न हो तो आप खुद पूछ लीजिए।

मेहमान- रहने दीजिए। वह सब मैं समझता हूं। मुंह के सामने झूठी मुस्कान चमका देने से कुछ नहीं होता। मैं पूरे घर का वातावरण भांप लेता हूं। चावल के एक दाने से हंडी की हालत पकड़ लेता हूं। मेरे सामने पाखंड नहीं चलता।

मेज़बान- पता नहीं आपको ऐसा भ्रम कैसे हो गया। हां, हम लोग कभी-कभी यह चर्चा जरूर करने लगते हैं कि आपको आये इतने दिन हो गये, घर के लोग चिंतित हो रहे होंगे।

मेहमान- छोड़िए, छोड़िए। आपकी चिंता को मैं समझता हूं। आपकी चिंता यही है कि मैं आपके घर की देहरी क्यों नहीं छोड़ता। जहां तक मेरे घर वालों का सवाल है, वे मेरी आदत जानते हैं इसलिए चिंतित नहीं होते। मेरा जीवन इसी तरह लोगों को उपकृत करते बीत गया। वे जानते हैं कि मैं जहां भी हूंगा सुख से हूंगा।

मेज़बान- बड़ी अच्छी बात है। हम भी यही चाहते हैं कि आप यहां पूरे सुख से रहें। लीजिए, चाय पीजिए।

मेहमान- पीता हूं। आपसे कहा था कि एक-दो दिन मुझे यहां के आसपास के दर्शनीय स्थल दिखा दीजिए, लेकिन आप झटके पर झटका दिये जा रहे हैं। कभी छुट्टी नहीं मिली तो कभी स्पेशल ड्यूटी लग गयी।

मेज़बान- आपको गलतफहमी हुई है, भाई साहब। इस शहर में कुछ देखने लायक है ही नहीं। लोग यों ही अपने शहर के बारे में शेखी मारते रहते हैं।

मेहमान- उड़िए मत। यहां की संगमरमर की चट्टानें पूरे हिन्दुस्तान में मशहूर हैं। रानी दुर्गावती का एक किला भी है जिसकी लोग चर्चा करते हैं। दरअसल आप चाहते हैं कि मैं अकेला ही चला जाऊं ताकि आपका पैसा बचे और मेरा खर्च हो।

मेज़बान- कैसी बातें करते हैं आप! असली बात यह है कि रानी दुर्गावती का किला अब इतना पुराना हो गया है कि आम आदमी को उसमें कुछ दिलचस्प नज़र नहीं आता और संगमरमर की चट्टानों में इतनी तोड़फोड़ हो गयी है कि उनका नाम भर रह गया है।

मेहमान- जो भी हो। मुझे अपने शहर लौट कर लोगों को बताना है कि मैंने यह सब देखा। इसलिए मुझे यहां से जल्दी विदा करना चाहते हों तो दफ्तर से छुट्टी लीजिए और मुझे ये जगहें घुमाइए।

मेज़बान- ज़रूर घुमाऊंगा। लेकिन आप विदा होने की बात क्यों करते हैं? मुझे इससे पीड़ा होती है।

 

मेहमान- पीड़ा होती है या खुशी होती है यह मैं जानता हूं। ये सब जगहें घूमने के बाद आप अपने पैसे से मेरा रिजर्वेशन करा दीजिए। संगमरमर की एक अच्छी सी मूर्ति भेंट भी कर दीजिएगा। घर जाकर क्या दिखाऊंगा? मैं आपके चढ़ते समधी का फुफेरा भाई हूं।चढ़ता रिश्तेदार हूं। इतना हक तो मेरा बनता ही है। रोज-रोज थोड़े ही आता हूं।

मेज़बान- सब हो जाएगा। हम पर आपका हक तो पूरा है ही। यह भी कोई कहने की बात है?

मेहमान- अगले साल बाल-बच्चों को लेकर आऊंगा। आठ दस दिन रुकूंगा।

मेज़बान- ज़रूर ज़रूर। मेरा अहोभाग्य। हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे। आने से पहले सूचित कर दीजिएगा ताकि मैं कहीं इधर-उधर न चला जाऊं।

मेहमान- बिना सूचित किये ही आऊंगा। सूचित करुंगा तो आप जानबूझकर लिख देंगे कि इधर-उधर जा रहा हूं। आप नहीं भी रहेंगे तो आपका परिवार तो रहेगा।

मेज़बान- आप बहुत विनोदी हैं। आपके आने से हमें सचमुच बड़ी खुशी होगी

मेहमान- अब आपको खुशी हो या रंज, हम तो आएंगे। आप में हमें बाहर निकालने की हिम्मत तो है नहीं क्योंकि हम चढ़ते रिश्तेदार हैं। साल भर भी डेरा डाले रहें फिर भी आप चूं नहीं कर सकते। मुझे पता है कि हमारा रहना-खाना आपको अखरेगा क्योंकि महंगाई बढ़ रही है, लेकिन आपको चढ़ते भावों और चढ़ते रिश्तेदारों में से एक का चुनाव करना होगा।

मेज़बान- मैं पहले आज छुट्टी लेकर आपके घूमने-घामने की व्यवस्था करता हूं।

मेहमान-देखा! मैंने रिजर्वेशन की बात कही तो आप फौरन हरकत में आ गये। ठीक है, यहां से विदा होकर मुझे एक और उतरते रिश्तेदार के यहां जाना है। दो-तीन साल से उनका आतिथ्य ग्रहण नहीं किया। कुछ दिन उन्हें भी सेवा का मौका देना है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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