श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री चंद्रभान राही जी द्वारा लिखित पुस्तक “मानसी…” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 168 ☆
☆ “मानसी” – लेखक … श्री चंद्रभान राही ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – मानसी
उपन्यासकार – चन्द्रभान राही, भोपाल
प्रकाशक – सर्वत्र, भोपाल
पृष्ठ – २७८, मूल्य – ३९९ रु
पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था। इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत हुई। इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया। स्त्री अस्मिता, लिंग भेद, नारी-जागरण, स्त्री जीवन की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा। यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है। आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता, स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ, कहानियों, उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं। स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं।
मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था। उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था। महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया। पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया। दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है। नार्याः यत्र पूज्यंते। । के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा, किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है। कानून, नारी आंदोलन, स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं, और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है।
विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं। इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है। स्त्री मन को पढ़ने की, उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में, स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है। मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये, समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित, तुलसी सम्मान, शब्द शिखर सम्मान, पवैया सम्मान, देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान, श्रम श्री सम्मान, स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान, आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है। मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है। वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं। एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म करते हैं। अध्ययन, अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं, पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है। अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं। स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं। वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं।
“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए। ” स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी’ के लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है।
स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल, स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है। ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं। आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है।
इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी, मुंडा, मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी, चकाचौंध की दुनियां वाली नैना, गिरधारीलाल, दिवाकर, रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है। उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है। यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है। किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है। पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं, भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों, स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों, पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है। यह लेखकीय सफलता है।
मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था, अब तो माध्यम बदल रहे हैं, कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं। उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये, अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति ” कुछ तो देखा है ” में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं। केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी, अतः कुछ अंश उधृत हैं। । ।
‘स्त्री’, जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है।
‘स्त्री’ जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको ‘वेश्या’ का नाम धर देता है।
‘स्त्री’ को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।
‘स्त्री’ जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता।
“स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है। “
“मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। “
“मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है। “
“उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है। “
” दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती ‘तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई। ‘
‘स्त्री’, ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता। “
‘स्त्री’ कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है। ‘स्त्री’ कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता। “
मानसी’ एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया ‘वेश्या’ है। ‘स्त्री’ वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।
घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम, अलग-अलग पहचान क्यों? “स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है। “
लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा। वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।
मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे। उपन्यास अमेजन पर सुलभ है, पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये।
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈