श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 255 शिवोऽहम्… (06) ?

आत्मषटकम् के छठे और अंतिम श्लोक में आदिगुरु शंकराचार्य महाराज आत्मपरिचय को पराकाष्ठा पर ले जाते हैं।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो

विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।

न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥

मैं किसी भिन्नता के बिना, किसी रूप अथवा आकार के बिना, हर वस्तु के अंतर्निहित आधार के रूप में हर स्थान पर उपस्थित हूँ। सभी इंद्रियों की पृष्ठभूमि में मैं ही हूँ। न मैं किसी वस्तु से जुड़ा हूँ, न किसी से मुक्त हूँ। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।

विचार करें, विवेचन करें तो इन चार पंक्तियों में अनेक विलक्षण आयाम दृष्टिगोचर होते हैं। आत्मरूप स्वयं को समस्त संदेहों से परे घोषित करता है। आत्मरूप एक जैसा और एक समान है। वह निश्चल है, हर स्थिति में अविचल है।

आत्मरूप निराकार है अर्थात  जिसका कोई आकार नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलू है कि आत्मरूप किसी भी आकार में ढल सकता है। आत्मरूप सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित है, सर्वव्यापी है। आत्मरूप में न  मुक्ति है, न ही बंधन। वह सदा समता में स्थित है। आत्मरूप किसी वस्तु से जुड़ा नहीं है, साथ ही किसी वस्तु से परे भी नहीं है। वह कहीं नहीं है पर वह है तभी सबकुछ यहीं है।

वस्तुतः मनुष्य स्वयं के आत्मरूप को नहीं जानता और परमात्म को ढूँढ़ने का प्रयास करता है। जगत की इकाई है आत्म। इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं हो सकता। अतः जगत के नियंता से परिचय करने से पूर्व स्वयं से परिचय करना आवश्यक और अनिवार्य है।

मार्ग पर जाते एक साधु ने अपनी परछाई से खेलता बालक देखा। बालक हिलता तो उसकी परछाई हिलती। बालक दौड़ता तो परछाई दौड़ती। बालक उठता-बैठता, जैसा करता स्वाभाविक था कि परछाई की प्रतिक्रिया भी वैसी होती। बालक को आनंद तो आया पर अब वह परछाई को प्राप्त करना का प्रयास करने लगा। वह बार-बार परछाई को पकड़ने का प्रयास करता पर परछाई पकड़ में नहीं आती। हताश बालक रोने लगा। फिर एकाएक जाने क्या हुआ कि बालक ने अपना हाथ अपने सिर पर रख दिया। परछाई का सिर पकड़ में आ गया। बालक तो हँसने लगा पर साधु महाराज रोने लगे।

जाकर बालक के चरणों में अपना माथा टेक दिया। कहा, “गुरुवर, आज तक मैं परमात्म को बाहर खोजता रहा पर आज आत्मरूप का दर्शन करा अपने मुझे मार्ग दिखा दिया।”

आत्मषटकम् मनुष्य को संभ्रम के पार ले जाता है, भीतर के अपरंपार से मिलाता है। अपने प्रकाश का, अपनी ज्योति की साक्षी में दर्शन कराता है।

इसी दर्शन द्वारा आत्मषटकम् से निर्वाणषटकम् की यात्रा पूरी होती है। निर्वाण का अर्थ है, शून्य, निश्चल, शांत, समापन। हरेक स्थान पर स्वयं को पाना पर स्वयं कहीं न होना। मृत्यु तो हरेक की होती है, निर्वाण बिरले ही पाते हैं।

षटकम् के शब्दों को पढ़ना सरल है। इसके शाब्दिक अर्थ को जानना तुलनात्मक रूप से   कठिन। भावार्थ को जानना इससे आगे की यात्रा है,  मीमांसा कर पाने का साहस उससे आगे की कठिन सीढ़ी है पर इन सब से बहुत आगे है आत्मषट्कम् को निर्वाणषटकम् के रूप में अपना लेना। अपना निर्वाण प्राप्त कर लेना। यदि निर्वाण तक पहुँच गए तो शेष जीवन में अशेष क्या रह जाएगा? ब्रह्मांड के अशेष तक पहुँचने का एक ही माध्यम है, दृष्टि में शिव को उतारना, सृष्टि में शिव को निहारना और कह उठना, शिवोऽहम्…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments