श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 100 ☆ देश-परदेश – हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज के समाचार पत्र में मुख्य बिंदु के रूप में प्रकाशित पेरिस में हुए ओलंपिक का मंथन पढ़ा। अच्छा लगा, हमारे पैराओलिंपिक खिलाड़ियों का प्रदर्शन साधारण ओलंपियंस के मुकाबले कहीं बेहतर रहा है।
मन में जिज्ञासा जाग्रत हुई, ऐसा क्यों हो रहा है? सभी इस देश की माटी से जुड़े हुए हैं। प्रशिक्षण सुविधा ओलंपियन खिलाड़ियों के लिए भी बेहतर हैं। वो बिना किसी के निजी सहयोग से एक स्थान से दूसरे स्थान आसानी से भी आ जा सकते हैं। पैराओलिंपियाई खिलाड़ी को समाज में भी उचित सम्मान नहीं मिलता हैं।
आशा करते हैं, देश की सरकार उनका भी अभिनंदन करेगी, जन मानस भी उनकी वापसी पर उतना ही स्वागत सत्कार करेगा, जितना विनेश फोगट का हुआ था, या हमारे क्रिकेटर का भी होता है। सदी के महानायक उनको भी केबीसी में आमंत्रित कर सकते हैं। इन खिलाड़ियों को भी उद्योग जगत अपने उत्पाद का विज्ञापन करवा कर, अन्य को भी प्रेरित कर सकते हैं। सच्चाई, तो आने वाला समय ही बता पाएगा।
इस बाबत कुछ प्रबुद्ध मित्रों से बातचीत भी हुई, अंत में ये निष्कर्ष निकला कि हम अधिकतर भारतीय कठिन समय/ परिस्थितियों आदि में अपनी योग्यता का बेहतर प्रदर्शन करते हैं। ये सब पैराओलैंपियन बहुत कठिनाई से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। हिम्मत और हौंसला बुलंद हो तो कुछ भी मुमकिन हो सकता हैं। हमारे यहां वैसे भी कहते है” मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”।
© श्री राकेश कुमार
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