श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 301 ☆

? आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

राष्ट्र की प्रगति में तकनीकज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सच्ची प्रगति के लिये अभियंताओ और वैज्ञानिकों का राष्ट्र की मूल धारा से जुड़ा होना अत्यंत आवश्यक है। हमारे देश में आज भी तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। इस तरह अपने अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर हम उन्हें न केवल जन सामान्य से दूर कर रहे हैं वरन अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिको को पश्चिमी राष्ट्रों का रास्ता भी दिखा रहे हैं।

अंग्रेजी क्यो ? इसके जवाब मे कहा जाता है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड़ दी तो हम दुनिया से कट जायेगें। किंतु क्या रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन इत्यादि देश वैज्ञानिक प्रगति मे किसी से पीछे हैं ? क्या ये राष्ट्र  विश्व के कटे हुये हैं। इन राष्ट्रों मे तो तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा उनकी अपनी राष्ट्रभाषा मे ही होती है। अंग्रेजी मे नहीं। आज इतने सुविकसित अंतर्भाषा टूल्स बन चुके हैं कि विश्व संपर्क वाला यह तर्क बेमानी है ।

वास्तव मे विश्व संपर्क के लिये केवल कुछ बडे राष्ट्रीय संस्थान एवं केवल कुछ वैज्ञानिक व अभियंता ही जिम्मेदार होते हैं जो उस स्तर तक पहुचंते पहुंचते आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। देश के केवल उच्च तकनीकी संस्थानों में वैकल्पिक रूप से अंग्रेजी को तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकारा जा सकता है । किंतु वर्तमान स्थितियों में हम व्यर्थ ही सारे विद्यार्थियों को उनके अमूल्य 6 वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने में व्यस्त रखते हैं। जबकि आाज राष्ट्र भाषा हिन्दी में तकनीकी शिक्षण हेतु किताबें उपलब्ध कराई जा चुकी हैं । यदि कोई कमी है भी तो उसे दूर करने के लिये पर्याप्त संसाधन और बुद्धिजीवी सक्रिय हैं ।  दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत से कही अधिक संख्या में अभियंता तथा वैज्ञानिक विदेशों मे जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का एक बहुत बडा कारण उनका अंग्रेजी मे प्रशिक्षण भी है।

हमारे देश में शिक्षा की जो वर्तमान स्थिति है उसमें गांव गांव में भी अंग्रेजी माध्यम की शालायें खुल रही हैं , क्योकि अंग्रेजी भाषा के माध्यम को रोजगार तथा व्यक्तित्व निर्माण के साधन के रूप में स्वीकार कर लिया गया है . इसके पीछे अंग्रेजो का देश पर लम्बा शासन काल तो जिम्मेदार है ही साथ ही देश में भाषाई विविधता के चलते भाषाई आधार पर राज्यो के विभाजन की राजनीति भी जबाबदार लगती है . जिसके कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो दिया गया पर उसे राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार नही किया गया और इसका लाभ अंग्रेजी को मिलता गया ,विशेष रूप से तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में यही हुआ .

हिंदी को कठिन बताने के लिये प्रायः रेल के लिये लौहपथगामनी जैसे शब्दों के गिने चुने दुरूह उदाहरण लिये जाते है , पर यथार्थ है कि हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः ऐसे कुछ शब्द नागरी लिपि में लिखते हुये हिंदी मे यथावत अपनाये  जा सकते है। हिंदी शब्द तकनीक के लिये यदि अंग्रेजी वर्णमाला का प्रयोग करे तो हम अंग्रेजी अनुवाद टेक्नीक के बहुत निकट है।  संत के लिये सेंट, अंदर के लिये अंडर, नियर के लिये निकट जैसे ढेरों उदाहरण है। शब्दों की उत्पत्ति के विवाद मे न पड़कर यह कहना उचित है कि हिंदी क्लिष्ट नही है।

हमने एक गलत धारणा बना रखी है कि नई तकनीक के जनक पश्चिमी देश ही  होते है। यह सही नहीं है। पुरातन ग्रंथों में भारत विश्व गुरू के दर्जे पर था। हमारे वैज्ञानिको एवं तकनीकज्ञों में नवीन अनुसंधान करने की क्षमता है। तब प्रश्न उठता है कि क्यों हम अंग्रेजी ही अपनाये। क्यों न हम दूसरों की अन्वेषित तकनीक के अनुकरण की जगह अपनी क्षेत्रीय स्थितियों के अनुरूप स्वंय की जरूरतों के अनुसार स्वंय अनुसंधान करे जिससे उसे सीखने के लिये दूसरों को हिंदी अपनाने की आवश्यकता महसूस हो।

जब अत्याधुनिक जटिल कार्य करने वाले कप्यूटरों की चर्चा होती है तो आम आदमी की भी उनमें सहज रूचि होती है एवं वह भी उनकी कार्यप्रणाली समझना चाहता है। किंतु भाषा का माध्यम बीच में आ जाता है और जन सामान्य वैज्ञानिक प्रयोगों को केवल चमत्कार समझ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेता है। इसकी जगह यदि इन प्रयोगों की विस्तृत जानकारी देकर हम लोगो की जिज्ञासा को और बढा सके तो निश्चित ही नये नये अनुसंधान को बढावा मिलेगा। इतिहास गवाह है कि अनेक ऐसे खोजे हो चुकी है जो विज्ञान के अध्येताओं ने नही किंतु आवश्यकता के अनुरूप अपनी जिज्ञासा के अनुसार जनसामान्य ने की है।

यह विडंबना है कि ग्रामीण विकास के लिये विज्ञान जैसे विषयो पर अंग्रेजी मे बडी बडी संगोष्ठियां तो होती हैं किंतु इनमें जिनके विकास की बातें होती हैं वे ही उसे समझ नही पाते। मातृभाषा में मानव जीवन के हर पहलू पर बेहिचक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। क्योंकि बचपन से ही व्यक्ति मातृभाषा मे बोलता पढ़ता लिखता और समझता है। फिर विज्ञान या तकनीक ही मातृभाषा मे नही समझ सकता ऐसा सोचना नितांत गलत है।

आज हिंदी अपनाने की प्रक्रिया का प्रांरभ त्रैमासिक या छैमाही पत्रिका के प्रारंभ से होता है जो दो चार अंकों के बाद साधनों के अभाव में बंद हो जाती है। यदि हम हिंदी अपनाने के इस कार्य के प्रति ऐसे ही उदासीन रहे तो भावी पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी। हिंदी अपनाने के महत्व पर भाषण देकर या हिंदी संस्थानों के कार्यक्रमों में हिंदी दिवस मनाकर हिंदी के प्रति हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो सकती। हमें सच्चे अर्थों में प्रयोग के स्तर पर हिंदी को अपनाना होगा। तभी हम मातृभाषा हिंदी को उसके सही स्थान पर पहुंचा पायेंगे।

हिंदी ग्रंथ अकादमी हिंदी मे तकनीकी साहित्य छापती है। बडी बडी प्रदर्शनियां इस गौरव के साथ लगाई जाती है कि हिंदी में तकनीकी साहित्य उपलब्ध है। किंतु इन ग्रंथो का कोई उपयोग नहीं करता। यहां तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण तक छप नहीं पाते। क्योंकि विश्वविद्यालयों में तकनीकी का माध्यम अंग्रेजी ही है। यह स्थिति चिंता जनक है। हिंदी को प्रायः साम्प्रदायिकता क्षेत्रीयता एवं जातीयता के रंग में रंगकर निहित स्वार्थों वाले राजनैतिक लोग भाषाई ध्रुवीकरण करके अपनी रोटियां सेंकते नजर आते हैं। हमें एक ही बात ध्यान में रखनी है कि हम भारतीय हैं। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है यदि राष्ट्रीयता की मूल भावना से हिंदी को अपनाया जावेगा तो यही हिंदी राष्ट्र की अखंडता और विभिन्नता में एकता वाली हमारी संस्कृति के काश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले विभिन्न रूपों को परस्पर और निकट लाने में समर्थ होगी।

यही हिंदी भारतीय ग्रामों के सच्चे उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक को जन्म देगी। हमें चाहिये कि एक निष्ठा की भावना से कृत संकल्प होकर व्यवहारिक दृष्टिकोण से हिंदी को अपनाने में जुट जावे। अंग्रेजी के इतने गुलाम मत बनिये कि कल जब आप हिंदी की मांग करने निकले तो चिल्लाये कि वी वांट हिंदी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

बी ई सिविल, पोस्ट ग्रेजुएशन फाउंडेशन, सर्टीफाइड इनर्जी मैनेजर

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments