श्री श्याम खापर्डे
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सपने”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 192 ☆
☆ # “सपने” # ☆
सुबह की चहचहाती चिड़ियों के
फूलों की लटकती हुई लड़ियों के
क्षितिज पर चमकती हुई बिंदीया के
किरणों की शरारत से
उड़ती हुई निंदिया के
पनघट पर रून-झुन रून-झुन
पायल के
सखियों की तानों से आहत
घायल के
मंद-मंद खुशबू
बिखेरती पवन के
रंग-बिरंगे फूलों से
भरे चमन के
जिन्हें देखकर दिल
करता वाह-वाह है
अब तो ऐसे सपने
दिखाते जीने की राह है
सपने –
प्रातः काल अलसाये से
छोड़ते हुए अपने नीड़ के
मजबूरी में सुबह-सुबह
दौड़ती हुई भीड़ के
रोटी के बदलते हुए
नये नये रंग के
भूख के लिए
होती हुई जंग के
थके हुए बेबस
झुलसे हुए पांव के
अपने बच्चे को बचाती
मां की आंचल की छांव के
बुलडोजर से उजड़ती हुई
बस्तियों के
मंझधार में गृहस्थी की
डूबती हुई कश्तीयों के
कल आबाद थी
वह बस्तियां आज तबाह है
अब तो ऐसे सपने
देखना भी गुनाह है
सपने –
पेशोपेश मे पड़े
हुए बलम के
गिरवी रखी हुई
कलमकार के कलम के
ग्रह नक्षत्रों में उलझे
हुए सनम के
हाथ की लकीरों ने
फैलाये हुए भरम के
दिन-ब-दिन बदलती
हुई तस्वीर के
पांव में पहनी
हुई जंजीर के
वंचितों की आंखों से
बहते हुए नीर के
उनके हृदय में
उठती हुई पीर के
ऐसा कुछ पाने की
इन आंखों में चाह है
अब तो ऐसे टूटते सपनों को
कौन देता पनाह है
सपने भी कितने अजीब होते हैं
कभी हंसाते हैं कभी रूलाते हैं
जीवन बेरंग हो जाता है
जब सपने टूट जाते है /
© श्याम खापर्डे
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈