हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 41 – उन्माद ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “उन्माद । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 41 ☆

☆ लघुकथा-  उन्माद  ☆

“हे माँ ! तूने सही कहा था. ये एक लाख रुपए तेरी बेटी की शादी के लिए रखे हैं. इसे खर्च मत कर. मगर मैं नहीं माना, माँ. मैंने तुझ से कहा था, “माँ ! मैं इस एक लाख रुपए से ऑटोरिक्शा खरीदूंगा. फिर देखना माँ. मैं शहर में इसे चला कर खूब पैसे कमाऊंगा.”

“तब माँ तूने कहा था, “शहर में जिस रफतार से पैसा आता है उसी रफ्तार से चला जाता है. बेटा तू यही रह. इस पूंजी से खेत खरीद कर खेती कर. हम जल्दी ही अपनी बिटिया की शादी कर देंगे. तब तू शहर चला जाना.”

“मगर माँ , मैं पागल था. तेरी बात नहीं मानी. ये देख ! उसी का नतीजा है”, कह कर वह फूट-फूट कर रोने लगा. लोग उसे पागल समझ कर उस से दूर भागने लगे.

वह अपने जलते हुए ऑटोरिक्शा की और देख कर चिल्लाया, “देख माँ ! यह ऑटोरिक्शा, उस की डिक्की में रखा ‘बैंक-बैलेंस’ और शादी के अरमान, एक शराबी की गलती की वजह से खाक हो गए.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

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