डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोवैज्ञानिक कथा  – ‘संकट । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 263 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ संकट

वह पचास का नोट चंपालाल की जेब में किसी गोजर जैसा सरसराता था। किसी भी वक्त वह उसकी उपस्थिति को भूल नहीं पाता था। उसे अपने बचपन की एक घटना याद आती थी। उसके गांव के ज़मीदार साहब गांव के किसी भी व्यक्ति की जेब में बिच्छू छुड़वा दिया करते थे और फिर उसकी बदहवासी देखकर हंसते-हंसते बेहाल हो जाते थे। उनके मज़ाक का शिकार न हंस सकता था, न रो सकता था। वह पचास का नोट भी चंपालाल की जेब में बिच्छू जैसा रेंगता था।

वह नोट उसे पिछले दिन एक शराबी ने पकड़ा दिया था। जब वह सवारी के इंतज़ार में मालवीय चौक पर अपने रिक्शे की सीट पर बैठा था, तभी वह शराबी जाने कहां से आकर धप से रिक्शे पर बैठ गया था। बैठते ही वह सीट पर फैल गया था। उसके बैठने का ढंग उसकी हालत को ज़ाहिर करता था। बैठकर अधखुली आंखों से शून्य  में ताकते हुए वह अस्फुट स्वर में बोला, ‘चल’।

चंपालाल ने पूछा, ‘कहां?’

लेकिन शराबी को उसकी बात से कोई गरज़ नहीं थी। वह आंखें बन्द किये थोड़ी देर चुप बैठा रहा, फिर आधी आंखें खोलकर दुबारा कुछ गुस्से से बोला ‘चल’।

परेशानी में चंपालाल ने सामने की तरफ रिक्शा बढ़ा दिया। वह धीरे-धीरे रिक्शा चलाता रहा। थोड़ी दूर चलकर वह रुकता और पूछता, ‘अब किधर चलूं ?’ और शराबी थोड़ी आंखें खोलकर जवाब देता, ‘आगे चल’।

इसी तरह वह करीब आधे घंटे तक सड़कों पर भटकता रहा। एक जगह रिक्शा रोकने पर शराबी ने आंखें खोलकर आसपास गौर से देखा और बोला, ‘यह कहां ले आया? मिलौनीगंज चल।’

संकेत पाकर चंपालाल ने रिक्शा मिलौनीगंज की तरफ बढ़ा दिया। एक जगह शराबी बोला, ‘रोक!’ और वह लड़खड़ाता हुआ उतर गया। उतरकर वह दो मिनट तक अपनी जेबों में हाथ ठूंसता रहा, इसके बाद उसने वह पचास रुपये का मुड़ा-तुड़ा नोट उसके हाथ में पकड़ा दिया।

बिजली के खंभे की रोशनी में चंपालाल ने वह नोट खोलकर देखा। देखकर उसका खून सूख गया। नोट गन्दा तो था ही, बीच में आधी दूर तक फटा था ।साक्षात मुसीबत। उसने शराबी की तरफ देखा। वह आंखें बन्द किये, टांगें पसारे, सामने वाले खंभे के नीचे बैठा था। वह उसके पास तक गया, उसे कंधे से हिलाया। शराबी ने आधी आंखें खोलीं। चंपालाल बोला, ‘यह नोट फटा है।’ शराबी ने ‘हूं’ कह कर फिर आंखें बन्द कर लीं।

तभी एक घर का दरवाज़ा खोलकर एक नौजवान निकला। चंपालाल ने उसे नोट दिखाया, कहा, ‘देखो, इन्होंने यह फटा नोट दिया है। अब कुछ बोल नहीं रहे हैं।’

नौजवान हंसा, बोला, ‘जो मिल गया उसे गनीमत समझो। भीतर गली में इनका घर है। वहां शिकायत करने जाओगे तो यह नोट भी छिन जाएगा। भला चाहते हो तो फौरन बढ़ जाओ।’

चंपालाल रिक्शा लेकर बढ़ गया, लेकिन वह नोट उसकी जेब में कांटे जैसा चुभने लगा। दिन भर में तीन चार सौ रुपये की आमदनी होती थी। उसमें से अगर पचास का नोट बट्टे-खाते में चला जाए तो कमाई का बड़ा हिस्सा बराबर हो गया। वह नोट उसके दिमाग पर बैठ गया। उसका सारा चैन खत्म हो गया।

उसे रास्ता चलना दूभर हो गया। पहले तो उसने कोशिश की कि नोट को किसी सवारी पर ही थोप दे। वह इसी चक्कर में था कि कोई सवारी उसे सौ या दो सौ का नोट दे और वह उसे बाकी के रूप में वह  पचास का नोट थमा दे। लेकिन उसकी मंशा पूरी नहीं हुई। दो सवारियां मिलीं, लेकिन दोनों ने उसे फुटकर रुपये ही थमाये। वह नोट जैसे उसके पास रहने की कसम खाये था।

एक जगह उसने बीड़ी का बंडल खरीदा और उस नोट को मोड़कर दुकानदार की तरफ बढ़ा दिया। वह ऊपर से लापरवाही का भाव दिखा रहा था, लेकिन उसका दिल धड़क रहा था। दुकानदार ने नोट को गुल्लक में फेंकने के बजाय उसे खोलकर गौर से देखा, फिर उसे चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। बोला, ‘इसेअपने पास रखो।’ चंपालाल ने थोड़ा आश्चर्यचकित होने का अभिनय किया, फिर उसे झख मार कर दूसरा नोट देना पड़ा। मन-ही-मन उसने दुकानदार को एक अंतरंग गाली दी।

वह घर की तरफ चल दिया, लेकिन उस नोट ने उसके सोच को एक ही दिशा में ला पटका था। वह सारे वक्त इसी उधेड़बुन में लगा था कि कैसे उससे छुटकारा पाये। आसपास की चीज़ें  और दृश्य उसके मन पर कोई छाप नहीं छोड़ रहे थे।

घर पहुंच कर वह रिक्शा खड़ा करके अनमने भाव से खटिया पर बैठ गया। उसके पहुंचने पर घर में उल्लास का वातावरण छा जाता था क्योंकि उसकी रोज़ की कमाई पर ही गृहस्थी की गाड़ी लुढ़कती थी। पांच साल की उसकी बच्ची उसकी गोद में चढ़ गयी और कुछ पाने की आशा में उसकी जेबें टटोलने लगी। लेकिन चंपालाल को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने खीझकर बच्ची को गोद से उतार दिया और बच्ची उसकी मन:स्थिति को समझ कर उदास होकर मां की गोद में मुंह छिपाकर लेट गयी।

घर पहुंच कर चंपालाल ने सबसे पहले पत्नी से दूसरे दिन के लिए खरीदी जाने वाली चीज़ों के बारे में पूछा। कारण वही था— उस नोट से पिंड छुड़ाना।

वह नुक्कड़ वाले सिंधी की दुकान पर पहुंचा। वहां तीन ग्राहक उपस्थित थे। चंपालाल चुपचाप उनके पीछे खड़ा हो गया। ग्राहक  सौदा लेते रहे। सभी उसी मोहल्ले के थे। उसने देखा कि शर्मा जी ने कुछ सामान लेकर सिंधी को सौ का नोट दिया। नोट एकदम खस्ताहाल था। सिंधी ने उसे बल्ब की रोशनी में देखा, फिर हंस कर बोला, ‘इसकी हालत तो खराब है, साहब।’

शर्मा चतुराई से हंसा, बोला, ‘रखो,रखो। निकल जाएगा। न चले तो कल हमको देना।’

सिंधी ने एक क्षण सोचकर नोट गुल्लक में फेंक दिया और बाकी पैसे निकाल कर शर्मा को दे दिये। इस दृश्य से चंपालाल को कुछ ढाढ़स हुआ।

 

 

जब उसका नंबर आया तो उसने रोज़ की अपनी मांग बता दी। सिंधी तटस्थ भाव से सामान तौलने लगा और चंपालाल का दिल धड़कने  लगा। सिंधी ने सामान काउंटर पर रख दिया। चंपालाल  ने वह नोट दूसरे नोटों से अलग  करके पहले से ही हाथ में ले रखा था ताकि सिंधी को दूसरे नोट न दिखें। उसने लापरवाही से नोट सिंधी की तरफ बढ़ाया। सिंधी ने नोट का कोना पड़कर उसे मरे चूहे की तरह ऊपर उठाया और उसी तरह उसे चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। व्यंग्य से बोला, ‘इतना बढ़िया नोट कहां से ढूंढ़ कर लाये? इसे संभाल कर रखो।’

चंपालाल को शर्मा का वाक्य याद था। बोला, ‘रख लो साईं, न चले तो हमको दे देना।’

सिंधी ने हाथ को और लंबा करके नोट  बिलकुल उसकी छाती तक पहुंचा दिया। बोला, ‘हां हां,जानता हूं, तू बड़ा धन्नासेठ है। तेरे पास तो नोटों का ढेर लगा है। दूसरा नोट दे, नहीं तो अपना रास्ता पकड़।’

चंपालाल ने मरे मन से दूसरा नोट निकाला और सामान उठाकर घर लौट आया। उस रात उसे रोटी  बेस्वाद लगी। वह नोट उसके हर क्षण को कुतर रहा था।

बिस्तर पर बड़ी देर तक वह इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि उस नोट से कैसे मुक्ति पायी जाए। फिर उसे नींद लग गयी। नींद में उसने देखा कि सिंधी ने उसका नोट बड़ी खुशी से ले लिया है और वह सामान लेकर खुश-खुश घर लौट रहा है। उसका मन प्रसन्न हो गया। जब उसकी नींद खुली तो थोड़ी देर तक वही भ्रम बना रहा। लेकिन बहुत जल्दी वह समझ गया कि वह केवल सपना था, और हकीकत अपनी जगह कायम  थी।

सवेरे उसकी चिंता कुछ कम हो गयी। उसने स्थिति से समझौता कर लिया और सोच लिया कि परेशान होने से कोई लाभ नहीं है, नोट देर-सवेर निकल ही जाएगा। लेकिन वह उस तरफ से निश्चिंत नहीं हुआ था। वह अब भी नोट से मुक्त होने के लिए सजग था।

दूसरे दिन उसने दो बार उस नोट से मुक्ति पाने की कोशिश की, लेकिन दोनों बार असफल रहा। वह समझ गया कि नोट के साथ-साथ कुछ दोष उसकी स्थिति का भी था। उसने कई सफेदपोशों को उसी तरह के नोटों का आराम से विनिमय करते देखा था। उसे दिक्कत इसलिए हो रही थी कि उसकी कोई साख नहीं थी, न ही वह किसी दुकान का बड़ा और बंधा ग्राहक था।

वह नोट उसी तरह उसके पुराने पर्स में बैठा रहा। चंपालाल जब पैसे रखने या निकालने के लिए पर्स खोलता तो उसे देखकर बुदबुदाता, ‘बैठे रहो बेटा। मेरा पीछा मत छोड़ना। हओ?’

 

 

शाम को जब वह अपने मोहल्ले के चौराहे पर सवारी के इंतज़ार में खड़ा था तभी उसे दूर से दीपक आता दिखा। सफेद  झक कुर्ता और अलीगढ़ी पायजामा। दीपक मोहल्ले के ठेकेदार प्रीतम सिंह का इकलौता बेटा था। वह ऊंचा पूरा,गौरवर्ण, सुन्दर युवक था। कामकाज के प्रति उसकी अरुचि थी और इसलिए बाप कुछ परेशान रहता था। लेकिन दीपक निश्चिंत था। उसके  हाथ में हमेशा सिगरेट होती थी और ओठों के कोनों में पान की लाली। उसका ज़्यादातर वक्त कॉफी हाउस, होटलों और पान की दुकानों में गुज़रता था।

शाम को मोहल्ले के किसी परिचित रिक्शे पर बैठकर किसी तरफ निकल पड़ना दीपक के शौकों में से एक था। रिक्शे पर बैठकर वह अपनी प्रिय दुकानों का चक्कर लगा आता था। बीच में दोस्तों-परिचितों के मिलने पर रिक्शा  रुकवा लेता और आराम से बातें करता रहता। रिक्शेवाले को शिकायत नहीं होती थी क्योंकि वह मज़दूरी आशा से ज़्यादा देता था। इसके अलावा वह रिक्शेवाले को चाय, पान और सिगरेट में अपना साथी बना लेता। इसलिए मोहल्ले के रिक्शेवाले उससे खुश रहते थे।

रिक्शे पर चलते हुए दीपक रिक्शेवाले से बेतकल्लुफी से बातें करता रहता। अक्सर उसकी बात स्वगत भाषण जैसी होती। एक बात वह अक्सर कहता, ‘बाप को बड़ी शिकायत है कि मैं कुछ करता धरता नहीं। लेकिन मैं क्यों करूं, भई? बाप ने इतना कमा लिया है कि दो-तीन पीढ़ियों का काम बिना कमाये चल सकता है। घर में कोई खर्च करने वाला भी तो चाहिए। बोलो भई, ठीक कहा न?’

रिक्शेवाला उसकी मज़ेदार बातें सुनकर प्रसन्न होकर सहमति में सिर हिलाता।

उस शाम सौभाग्य से दीपक चंपालाल के रिक्शे पर आकर जम गया। चंपालाल खुश हो गया। दीपक के अड्डे सब रिक्शेवालों को मालूम थे। चंपालाल उसे लेकर करीब डेढ़ घंटे तक घूमता रहा और उसकी बातों और व्यवहार का मज़ा लेता रहा।

लौटने पर उतरते वक्त दीपक ने चंपालाल को दो सौ का नोट देकर दाहिना हाथ उठा दिया। मतलब— सारा रख लो, कुछ लौटाने की ज़रूरत नहीं है। चंपालाल के ओठों पर हल्की मुस्कान आ गयी।

दीपक रिक्शे से उतर कर चला और चंपालाल ने दो सौ का नोट रखने के लिए जेब से निकाल कर पर्स खोला। पर्स खोलते ही उसे उस संकटकारक पचास के नोट का कोना दिखा। उसके दिमाग़ में एक विचार आया।

दीपक को आवाज़ देकर वह बोला, ‘भैया, थोड़ा काम था।’

दीपक घूम कर खड़ा हो गया। इत्मीनान से बोला, ‘बोलो यार।’

चंपालाल ने वह नोट उसे दिखाया, फिर बोला, ‘यह नोट एक दारूखोर ने दे दिया। अब इसे कोई लेता नहीं। यह  आफत गले पड़ गयी है। आप तो बैंक वैंक जाते रहते हो। इसे बदलवा दो।’

दीपक ने नोट की तरफ देख कर बिना कुछ बोले अपनी जेब से पर्स निकाल कर एक पचास का नोट चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। इसके बाद उसने वह फटा नोट अपने हाथ में लेकर उसे उलटा पलटा। दूसरे क्षण उसने उस नोट के चार टुकड़े किये और उन्हें ज़मीन पर फेंक दिया। इसके बाद वह मुड़कर आराम से चल दिया।

चंपालाल सकते की हालत में खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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