श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-४ ☆ श्री सुरेश पटवा
कोप्पल नगर के इतिहास की जानकारी शतवाहन, गंग, होयसल और चालुक्य राजवंशों के साम्राज्यों से मिलती है। “कोप्पल” का उल्लेख राजा नृपथुंगा के शासनकाल के दौरान महान कन्नड़ कविराजमार्ग (814-878 ईस्वी) की काव्य कृति “विद्या महा कोपना नगर” में मिलती है। मौर्य काल में इस क्षेत्र में जैन धर्म का विकास हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र और अशोक के पिता बिंदुसार ने जैन धर्म अपना लिया और दक्षिण भारत में पहुँच इसी क्षेत्र में आकर प्राण त्यागे। इसलिए, इसे “जैनकाशी” भी कहा जाता है। बारहवीं शताब्दी में समाज सुधारक बसवेश्वर का वीरशैववाद लोकप्रिय हुआ। स्थानीय लोगों में कोप्पल के वर्तमान गवी मठ का बड़ा आकर्षण है।
कोप्पल में गंगावती तालुक का अनेगुंडी नामक स्थान महान विजयनगर राजवंश की पहली राजधानी था। पुराना महल और किला अभी भी मौजूद है जहाँ हर साल “अनेगुंडी” वार्षिक उत्सव मनाया जाता है। कोप्पल जिले के अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान हुलिगी, कनकगिरी, इटागी, कुकनूर, मदीनूर, इंद्रकीला पर्वत, पुरा, चिक्काबेनाकल और हिरेबेनाकल हैं।
आज़ादी से पहले कोप्पल हैदराबाद के निज़ाम के अधीन था। यद्यपि भारत को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली, चूँकि कोप्पल हैदराबाद क्षेत्र का हिस्सा था, इसलिए क्षेत्र के लोगों को हैदराबाद निज़ाम के चंगुल से आज़ादी पाने के लिए और संघर्ष करना पड़ा। वल्लभभाई पटेल और व्ही.पी. मेनन के भागीरथी प्रयासों के बाद 18 सितम्बर 1948 को हैदराबाद-कर्नाटक को निज़ाम से आज़ादी मिल गयी। तब से 01-04-1998 तक, कोप्पल जिला गुलबर्गा राजस्व प्रभाग के रायचूर जिले में था। अब खुद एक ज़िला मुख्यालय है। सभी साथी थके हैं। बस में एक दूसरे से टिक कर हल्कीफुल्की नींद निकाल रहे हैं। बस सिक्स लेन सड़क पर सरपट भाग रही है। हमारी नज़र ड्राइवर की नज़र पर है। वह पलक नहीं झपक रहा है। उससे इलाक़े की जानकारी लेते चल रहे हैं।
भौगोलिक दृष्टि से कोप्पल ज़िले के एक तरफ चट्टानी भूभाग है और दूसरी तरफ कई एकड़ सूखी भूमि है, जिसमें ज्वार बाजरा मक्का और मूंगफली की फसलें उगाई हैं। किसानी मुख्य रूप से मानसून पर निर्भर है, अभी भी यहाँ जुताई के तरीकों में बैल-हल का उपयोग करते दिखते हैं। हालाँकि, बैलगाड़ी के पहियों में लोहे की जगह टायर लग गए हैं। हाल ही में उनमें से कुछ ने उच्च तकनीक सिंचाई प्रणाली में कदम रखा है, खासकर पड़ोसी शहर मुनीराबाद से एक विशाल बांध से थुंगा-भद्रा नदी के पानी को मोड़ने के बाद शहर अपनी जल समस्या का समाधान करने लगा है, फलस्वरूप वर्तमान में अनार, अंगूर और अंजीर यहाँ से निर्यात किया जाता है। थुंगा-भद्रा नदियाँ मिलकर हिन्दी में तुंगभद्रा नदी का निर्माण करती हैं।
रास्ते में शाम गहराने लगी तो बादलों के विभिन्न रंगों से आसमान सजने लगा। दक्षिण भारत में इन दिनों बादलों की छटा बिलकुल अनोखी होती है। हिंदी फ़िल्मों में यहीं के बादलों की रील उपयोग की जाती थी। इसीलिए मद्रास की जैमिनि फ़िल्म कंपनी की फ़िल्मों में बादलों की मनभावन छटा देखने को मिलती थी। हमने बस से नीचे उतर कर और चलती बस में सफ़ेद और काले बादलों पर डूबते सूर्य की गुलाबी रोशनी में अद्भुत दृश्य देखे। गुलाबी बादलों की उड़ान को नज़रों में बसाते हुए हम्पी पहुँचने लगे।
हुबली से हॉस्पेट पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज गए। होटल हम्पी इंटरनेशनल में डेरा डाला। यहाँ मुंबई से छात्रों का एक बड़ा समूह रुका है। खूब चहल-पहल है। उनकी मस्ती और धमाल माहौल को जीवंत बनाए है। हमारे कुछ साथियों को शोर पसंद नहीं है, वे नाक-भों सिकोड़ रहे हैं। हमने बच्चों से बातें कीं तो उन्होंने खुश होकर हिस्सा लिया। वे मुंबई से स्टडी टूर पर यहाँ घूमने आए हैं। सभी टीनेजर्स हैं, इसलिए नाच-गाना, उधम-सुधम होना लाज़िमी है। नहीं तो, मातापिता के नियंत्रण से बाहर होने का क्या मतलब है। भोजन के बाद 15 मिनट की एक बैठक हुई जिसमें रामायण सम्मेलन के आयोजन और भ्रमण के विषय में आवश्यक दिशा निर्देश दिए गए। हम्पी इस हॉस्पेट नामक तालुक़ा बस्ती से 12 किलोमीटर दूर है। कल वहाँ घूमना है। साथियों के निवेदन पर हम्पी के बारे में उनको बताया।
क्रमशः…
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈