श्री सुधीरओखदे
परिचय
जन्म – 21 दिसम्बर 1961 (बीना मध्य प्रदेश)
शिक्षा – कला स्नातक – (B.A.), 2- पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान स्नातक – (B.Lib.I.sc) रीवा ,शहडोल और छतरपुर मध्य प्रदेश में …..
लेखन –सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य ,आलोचना , कवितायें और संस्मरण प्रकाशित .
प्रकाशित पुस्तकें – (व्यंग्य) 1-बुज़दिल कहीं के …2-राजा उदास है 3-सड़क अभी दूर है 4-गणतंत्र सिसक रहा है
विशेष – (1) मुंबई विश्वविद्यालय के B.A. (प्रथम वर्ष) में 2013 से 2017 तक “प्रतिभा शोध निकेतन “व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में समाविष्ट (2) अमरावती विश्वविद्यालय के B.Com (प्रथम वर्ष) में 2017 से “खिलती धूप और बढ़ता भाईचारा”व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में शामिल .
- सुधीर ओखदे की अनेक रचनाओं का मराठी और गुजराती में उस भाषा के तज्ञ लेखकों द्वारा भाषांतर प्रकाशित
- इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी सहित अनेक साहित्य वार्षिकी और महाराष्ट्र में प्रसिद्ध दीपावली अंकों में रचनाओं का प्रकाशन
- आकाशवाणी के लिए अनेक हास्य झलकियों का लेखन जो “मनवा उठत हिलोर“और “मुसीबत है “शीर्षक तहत प्रसारित
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई
☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ ☆
☆ “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीर ओखदे ☆
देखते देखते दुनिया कितनी बदल गई, परिवार टूटने लगे, एक ही घर में कितनी दीवार खड़ी हो गईं. आवभगत, प्रेम स्नेह, अपनापन कितने पराये हो गए, आपसी भाईचारा, त्याग बलिदान और रिश्तों को निभाने की परंपरा गायब होने लगी, ऐसे समय रह रहकर झांसी वाली मामी अक्सर याद आतीं हैं. उस समय तो ख़याल भी नहीं आता था कि ये अति साधारण सी दिखने वाली मामी अपने कर्तव्यों को ले कर कितनी सजग है. आज जब सोचता हूँ तो महसूस करता हूँ कि मेरी छोटी मामी न सिर्फ़ एक अच्छी इंसान थी अपितु वो अपने परिवार को ले कर कितनी समर्पित भी थी. अपने ससुराल पक्ष को ले कर उचित आवभगत. प्रेम अपनापन, प्यार स्नेह और साथ में जहाँ कठोर हो कर संस्कार लगाने हैं वहाँ उतनी ही कड़क भी. आज जहाँ किसी के घर २-३ दिन मेहमान बन कर जाने के पहले सोच विचार करना पड़ता है वहीं हमारी मामी अपनी ४ ननदों और उनके कुल १०-११ बच्चों की गरमी की छुट्टियों में पूरी तैयारी के साथ उत्साह से प्रतीक्षा करती थी. और कोई एक दो दिन के लिए नहीं अच्छे १५-२० दिनो के लिए.
क्या होता है अपने घर में एक साथ १५-२० लोगों का रहना खाना पीना और घूमना फिरना सैर सपाटा सब कुछ. कैसे करते होंगे उस सीमित तनख़्वाह में मामा मामी सबका इतने प्यार से. मामी का पूरा नाम था “ कुमुद रामकृष्ण देसाई “. लेकिन हम सब उन्हें “ छोटी मामी “ नाम से ही सम्बोधित करते थे.
मेरे दो मामा थे. बड़े मामा मुंबई में तो छोटे मामा झाँसी में रहते थे. मुंबई वाले मामा मामी दूर रहते थे. मुंबई यूँ भी हम सब को अपनी पहुँच से दूर लगती थी. ऊपर से कोई विशेष लगाव भी नहीं था. जब मुंबई वाले मामा मामी हम लोगों के घर आते तो बड़े प्यार से मिलते लेकिन पता नही क्यों एक औपचारिक सा वातावरण था वहाँ. मुंबई में जगह की समस्या शायद इसके पीछे एक कारण हो सकता है.
हम सब मौसेरे भाई बहन हर गरमी की छुट्टियों में झाँसी भागते थे जहाँ हमारी प्रिय छोटी मामी रहती थी. वो घर में ही एक छोटा सा स्कूल चलाती थी जिसमें मुझे याद आता है क़रीब २०-२२ बच्चे पढ़ने आते थे. स्कूल जाने के पूर्व बालवाड़ी या नर्सरी होती है न ? बस वैसी ही एक कमरे की स्कूल. लेकिन आप को बताऊँ झाँसी के “नरसिंह राव टोरिया” इलाक़े में मामी के स्कूल की धूम थी. बहुत मेहनत ले कर उस इलाक़े के सारे ग़रीब बच्चों को शिक्षा देने का अद्भुत कार्य मामी सन १९७०-७१ के दौर में करती थी. वह उस ज़माने की ग्रैजूएट थी और महाराष्ट्र के नागपुर की थी लेकिन झाँसी में बसने के बाद पूरी तरह से उसने अपने आप को बुंदेलखंड के परिवेश में ढाल लिया था. वो बच्चों से बुंदेलखंडी भाषा में बात करती थी.
उसके स्कूल की लोकप्रियता से प्रभावित हो कर शिक्षा विभाग की तरफ़ से उसके स्कूल को मान्यता देने की बात भी हुई थी ऐसा मुझे याद है, लेकिन मामी ने बड़ी विनम्रता से इस पेशकश को ना कहा था.
दरअसल मामा को ये स्कूल तकलीफ़ देती थी. उन दोनो में इस बात को ले कर तकरार भी होती थी लेकिन जीत हमेशा मामी की होती थी. मुझे याद है नीचे बच्चे अपने पंचम स्वर में कविता पाठ करते थे और ऊपर मामा उनसे भी तेज़ आवाज़ में पूजा करते करते श्लोक पढ़ते थे, मंत्रोचार करते थे. इस जुगलबंदी पर हम बच्चों को ख़ूब मज़ा आता था.
मामा रेलवे में थे और उन्हें बीच बीच में दौरों पर भी जाना पड़ता था सो घर परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी मामी के सर पर. लेकिन मैंने कभी मामी को त्रस्त नहीं देखा. सुबह उठ कर स्कूल से निपट कर हम सब का मन पसंद खाना बना कर दोपहर में हम सब के साथ पत्तों की बाज़ी में मामी फिर साथ. शाम को जब हम सब घूमने निकलते तो चुपके से उनकी बड़ी बेटी प्रतिभा दीदी के हाथ सब के चाटपकोड़ी के पैसे देती मामी मुझे आज भी स्मरण में हैं.
छोटे मामा जानते थे कि उनका काउंटरपार्ट इतना मज़बूत है इसलिए हम सब बच्चों की ज़िम्मेदारी मामी पे ही रहती थी. हम लोगों को वापस जाते समय क्या उपहार देना है से ले कर वहाँ रहने के दौरान क्या क्या ख़ातिरदारी करनी है तक सब. . . . हम सब बच्चों की फ़ौज नयी नयी फ़िल्में भी देखती थी. गीत गाता चल, साँच को आँच नहीं, दुल्हन वही जो पिया मन भाए. . ये सब उसी दौरान देखी हुई फ़िल्में हैं और आज भी रोमांचित करती हैं.
आज जब उन सब बातों को स्मरण करता हूँ तो मुझे मामी बहुत महान प्रतीत होती है. सीमित तनख़्वाह में इतना सब कुछ.
वो अपने बच्चों का हक़ मार कर शायद ये सब हम लोगों के लिए करती होगी. लेकिन उन दिनो इन बातों की परवाह भी कौन करता था. बहनें, भाई के घर बच्चों को ले कर जाना अपना हक़ समझती थीं और भाई इसे अपना कर्तव्य. हाँ लेकिन सुखद छुट्टी तो तभी लोगों की बीतती होगी जहाँ मामी हमारी मामी सी हो.
कहते है बुआ मौसी तो अपनी होती हैं लेकिन मामी चाची बाहर से आती हैं. मैं दोनो ही मामलों में भाग्यशाली निकला. मुझे मामी और चाची दोनो अच्छी मिलीं.
आज इतने वर्षों बाद भी जब झाँसी में बिताये बचपन के दिन याद आते हैं तो साथ ही याद आते हैं. चिवडा लड्डू और नानखटाई से भरे वे डब्बे जो हम बच्चों के नाश्ते और आते जाते खाने के लिए मामी बना कर रखती थी.
आज के बच्चों को न ऐसा ननिहाल मिलता होगा न इतना प्यार करने वाली मामी. आज वो हमारे बीच नहीं हैं पर हमेशा श्रद्धा से याद आती हैं.
(चित्र एवं परिचय – सोशल मीडिया से साभार)
श्री सुधीर ओखदे
सेवानिवृत्त अधिकारी, आकाशवाणी, जलगांव
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