सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ?)
मेरी डायरी के पन्ने से # 36 – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ?
क्लास प्रारंभ होने में अभी कुछ समय बाकी था। फिर भी मैंने घर का मुख्य दरवाज़ा खोल दिया और स्टडी रूम में तैयारी के लिए बैठ गई।
आज आनेवाला छात्र जर्मन है। पिता -पुत्र साथ ही हिंदी सीख रहे हैं। तीन माह पूर्व वे इटली से भारत शिफ्ट हुए हैं। दीवाली की छुट्टी के बाद उनका आज पहला क्लास था। उन्हें पता होता है कि दरवाज़ा खुला होता है पर चूँकि छुट्टी के बाद क्लास था तो अभिवादन के लिए मैं ही द्वार खोलकर उनकी प्रतीक्षा करने लगी।
सामने लिफ्ट के पास दीवार से टिककर एक नवयुवक खड़ा दिखा। उसकी पीठ के पीछे सात फुट बाय छह फुट का एक बड़ा मोटा, भारी प्लायवुड टिका था। हम तीसरी मंज़िल पर रहते हैं। उसे शायद और ऊपर जाना था। वह शायद आराम करने के लिए रुका था। लिफ्ट से इतनी बड़ी वस्तु तो ले जाना मना है।
पिता -पुत्र आए। नब्बे मिनिटों का क्लास पूरा हुआ और वे जाने लगे। बच्चों को विदा करने के लिए मैं हमेशा दरवाज़े तक जाती ही हूँ तो मैं पुनः दरवाज़े पर लौटी तो वही नव युवक उसी तरह पीठ पर प्लायवुड लादे खड़ा था।
पूछने पर वह बोला- यह तो छयालीसवाँ है। अभी चार और हैं। ट्रकवाला पचास प्लायवुड उतारकर चला गया है। दो घंटे में सब ऊपर ले जाना है।
– तो कोई साथी नहीं है तुम्हारे साथ जो मदद कर दे?
– नहीं, दुकानदार ने ट्रक के साथ मुझे ही भेजा है।
– कौन से फ्लोर पर जाना है?
– छठवें पर।
मैं अवाक होकर उसे देखने लगी कि इतना बड़ा और भारी वह भी पचास प्लायवुड इस अकेले मजदूर के लिए कितना कठिन होता होगा एक सौ से अधिक सीढ़ियों पर चढ़कर ले जाना फिर उतरना और फिर चढ़ना!
– पानी पियोगे बेटा?
– नहीं आंटी। कहकर वह अपने अंगोछे से पसीना पोंछने लगा।
कुछ देर विस्मित -सी उसे मैं देखती रही। उसका शरीर पसीने से लथपथ था। शरीर पर एक बिनियान था जो पसीने के कारण पूरा गीला था। कभी वह बनियान सफ़ेद तो निश्चित रहा होगा पर आज उसका रंग धूल मिट्टी और स्वेद के कारण पूरी तरह काला पड़ गया था।
मेरा भन भीषण व्याकुल हो उठा। कई चित्र आँखों के सम्मुख उभरने लगे।
बचपन से ईसा मसीह के बारे में सुनते तथा पढ़ते आ रहे हैं। दो चार फ़िल्में भी देखी हैं जहाँ ईसा को सज़ाए मौत दी जाती है और पूरे शहर से पीठ पर उसी सूली को उठाकर चलने की बाध्यता भी रखी गई थी बाद में जिस पर उन्हें कीलें ठोंककर चुनवा दिया गया था।
मनुष्य कितना कठोर, हिंसक, नृशंस और अत्याचारी हो सकता है इसकी सारी हदें रोमन्स पार कर चुके थे। यशु कमज़ोर तन और भीषण तीव्र मनोबलवाले पुरुष थे। वे तो द सन ऑफ़ गॉड माने जाते थे। शायद उन्हें विदित भी था कि उनका अंत मनुष्यों के हाथों इसी तरह से होगा।
पर आज! आज महज़ दो वक्त की रोटी कमाने के लिए एक मजदूर के साथ ऐसा अन्याय ? इतनी कठोरता? जिसके घर फर्नीचर बनने के लिए ये पचास प्लायवुड आए हैं उन्हें तो संभवतः यह ज्ञात भी न होगा कि ये किस विधि ऊपर पहुँचाए गए होंगे। आज सब प्रकार की मशीनें, मैन्यूअल लिफ्ट उपलब्ध हैं। फिर किसी ग़रीब के साथ उसकी विवशता का लाभ उठाते हुए इस तरह का व्यवहार क्यों किया जा रहा है भला?
मैंने जब युवक से पूछा कि पचास प्लायवुड ऊपर ले जेने के कितने पैसे मिलेंगे? तो वह चट बोला 2800 रुपये आंटी जी।
ईश्वर भला करे नौजवान का। संभवतः हर सीढ़ी चढ़ते समय उसने 2800रुपयों के करारेपन को अहसासों में महसूस किया होगा।
संभवतः उसकी किसी विशेष प्रयोजन में ये 2800 रुपये सहायक होंगे।
संभवतः वह भयंकर विवश रहा होगा।
पर जब रात को वह सोने गया होगा और फर्श पर अपनी पीठ टिकाई होगी तो क्या उसकी रीढ़ सीधी हो पाई होगी? भयंकर पीड़ा का अहसास न हुआ होगा? वह दर्द से कराह लेता रहा होगा। पर 2800 रपये के स्पर्श और गंध ने मरहम का काम भी किया होगा।
हाय रे प्रभु तेरी इस दुनिया में दरिद्र कितना असहाय है रे!
© सुश्री ऋता सिंह
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