डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय कथा – ‘एक नेक काम‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 267 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ एक नेक काम ☆
बाहर चले गये या बाहर रह रहे बच्चों का घर आना बहुत सुख देने वाला होता है, और उनका जाना बहुत दुखदायक। मीनू इस बार जब ससुराल से आयी तो मां बाप को हमेशा की तरह बहुत खुशी हुई। दोनों छोटी बहनों को भी। खासतौर से इसलिए कि उसके साथ बुलबुल भी था। बुलबुल अब दो साल का हो गया था। पिछली बार जब मीनू आयी थी तब वह इधर-उधर घिसट ही पाता था। अब वह सयाना हो गया था,खूब बातूनी। उसकी तोतली ज़बान दिन भर चलती थी। ढेर सारी जिज्ञासा और ढेर सारे सवाल। नाना नानी और दोनों मौसियो के लिए जीता-जागता खिलौना। मीनू के पास न अब वह रहता था, न सोता था।
नानी उसे अपने पास लिटा कर खूब सारी कहानियां सुनातीं— राजाओं, राजकुमारियों की, परियों और राक्षसों की। बच्चे वैसे भी अद्भुत श्रोता होते हैं। हर बात उनके लिए सच होती है, हर किस्सा विश्वसनीय। परी, राक्षस, सब उनकी कल्पना में जिन्दा हो जाते हैं। उनके साथ उठते, बैठते, बतयाते हैं। बुलबुल भी नानी की कहानियां सुनते-सुनते कभी किलक कर ताली बजाने लगता, कभी भयभीत होकर कबूतर की तरह उनकी गोद में दुबक जाता। सारे वक्त उसकी आंखें उत्सुकता से फैली रहतीं और पुतलियां नानी के चेहरे के चारों तरफ घूमती रहतीं। फिर एकाएक नानी पातीं कि वह किसी क्षण नींद में डूब गया है। उसके गुलाबी ओंठ नींद में खुल जाते और उसकी सांसों की मीठी महक नानी के चेहरे को छूने लगती।
मां के घर आकर मीनू आलसी हो जाती है। मां कोई काम नहीं करने देती। कहती हैं, अपने घर में बहुत काम करती होगी। यहां थोड़ा आराम कर ले। मां और बहनें सारा काम करती हैं और मीनू आराम फरमाती है। लेटी लेटी कोई किताब पलटती है या सोती है। यहां आकर जैसे वह एक बार फिर बच्ची हो जाती है। मां उसके लिए सोच सोच कर नये पकवान बनाती है और मना मना कर उसे खिलाती है।
मीनू ऊबती है तो परिचितों के घर बैठने के लिए चली जाती है। उसकी हमउम्र सहेलियों में से ज़्यादातर शादी के बाद ससुराल चली गयीं। जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई वे समय काटने के लिए किसी डिग्री या ट्रेनिंग के चक्कर में फंसी हैं। ऐसी सहेलियों को मीनू से ईर्ष्या होती है क्योंकि मध्यम वर्ग की लड़की की सही वक्त पर शादी हो जाना सौभाग्य की बात है।
बुलबुल के आने से मीनू के पिता भी खूब खुश हैं। वे कहीं भी जाने के लिए तैयार होते हैं कि बुलबुल कहता है, ‘नानाजी, कहां जा रहे हो? हम भी चलेंगे।’ वह सब जगह नाना की उंगली पकड़े घूमता है, चाहे वह बाज़ार हो या उनके मित्रों का घर।
गरज़ यह कि मीनू की उपस्थिति से घर में बड़ा सुकून है। उसकी बात कोई नहीं टालता, न मां-बाप, न बहनें।जब मर्जी आती है, वह मां को, पिता को, बहनों को झिड़क देती है और सब उसकी बात को शान्ति से सुन लेते हैं और मान लेते हैं। मां को आराम है क्योंकि पिता और बहनों पर वह खूब अनुशासन रखती है।
मीनू के आने से घर की महरी भी खुश है। वजह यह है कि जाते वक्त कुछ मिल जाने की आशा है— रुपये और शायद पुरानी साड़ी और ब्लाउज़। इसीलिए वह मीनू की अतिरिक्त सेवा करती है। काम खत्म होने पर अक्सर उसके हाथ- पांव दबाने बैठ जाती है।
महरी के साथ उसकी तेरह चौदह साल की बेटी आती है। नाम आश्चर्यजनक है— सुकर्ती। यह ‘सुकृति’ शब्द बिगड़कर कैसे निम्न वर्ग तक पहुंच गया, यह अनुसंधान का विषय है। वैसे हर सन्तान माता-पिता की नज़र में ‘सुकृति’ ही होती है। सुकर्ती किसी घर से कृपा-स्वरूप मिली गन्दी फ्राक पहने, रबर की चप्पलें फटफटाती, सूखा झोंटा खुजाती, मां के साथ घूमती रहती है। मां बर्तन मांजती है तो वह धो देती है। लेकिन उसे झाड़ू पोंछा लगाने की अनुमति नहीं मिलती क्योंकि उसकी सफाई के बाद भी घर में बहुत सी गन्दगी छूट जाती है।
बुलबुल सुकर्ती से भी बहुत हिल गया है। उसकी गोद में चढ़ा घूमता है। कई बार उसके साथ उसके घर भी हो आया है।
सुकर्ती को देखकर कई बार मीनू के मन में आया है कि उसे अपने साथ ले जाए। बुलबुल को खिलाने के लिए कोई चाहिए। एक ननद है जो अपनी पढ़ाई में लगी रहती है। सास ससुर ज़्यादा बूढ़े हैं। उनसे वह ठीक से संभलता नहीं। मीनू ने इसके बारे में मां से बात की और फिर दोनों ने ही महरी से। महरी बात को टाल देती है। बेटी के सूखे बालों पर प्यार से हाथ फेरकर कहती है, ‘बाई, अब इसी की वजह से घर में कुछ अच्छा लगता है। दोनों लड़के ‘न्यारे’ हो गये। यह भी चली जाएगी तो घर में मन कैसे लगेगा? जो रूखा सूखा मिलता है सो ठीक है। आंखों के सामने तो है। बड़ी हो जाएगी तो हाथ पीले कर देंगे।’
लेकिन मीनू और उसकी मां इतनी आसानी से हारने वाले नहीं। मां, मीनू और दोनों बहनें हमेशा महरी को एक ही धुन सुनाती रहती हैं, ‘सुकर्ती को भेज दो। आराम से रहेगी। अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी। भले घर में रहकर शऊर सीख जाएगी। यहां देखो कैसे घूमती है। वहां जाएगी तो शकल बदल जाएगी। तुम देखोगी तो पहचान भी नहीं पाओगी। और फिर मीनू तो साल- डेढ़- साल में आती ही रहती है। उसके साथ सुकर्ती भी आएगी।’
महरी एक कान से सुनती है, दूसरे से निकाल देती है। अकेले में सुकर्ती के सामने भी प्रलोभन लटकाये जाते हैं, ‘वहां अच्छा खाना, अच्छे कपड़े मिलेंगे। वहां कार भी है। खूब घूमने को मिलेगा। काम क्या है? बस, बुलबुल को खिलाना और थोड़ी ऊपरी उठा-धराई।’
सुनते सुनते सुकर्ती अपनी वर्तमान ज़िन्दगी और उस काल्पनिक ज़िन्दगी के बीच तुलना करने लगती है। उसे अपनी वर्तमान ज़िन्दगी में खोट नज़र आने लगते हैं। सामने कल्पना की इंद्रधनुषी दुनिया विस्तार लेती है जिसमें सब कुछ सुन्दर, चमकदार है, वर्तमान अभाव और अपमान नहीं है।
रात को जब थककर महरी सोने के लिए लेटती है तो उसके सिर पर हाथ फेरकर कहती है, ‘तू कहीं मत जाना बेटा। हम जैसे भी हैं अच्छे हैं। चली जाएगी तो देखने को तरस जाएंगे। जो मिलता है, उसी में हमें संतोष है।’
लेकिन सुकर्ती की आंखों में वह चमकदार दुनिया कौंधती है। वह कोई जवाब नहीं देती।
मीनू महीने भर रहने की सोच कर आयी थी, लेकिन एक दिन उसके पतिदेव आ धमके। बहुत से पति पत्नी-विछोह नहीं सह पाते। दो दिन बाद ही तबीयत बिगड़ने लगती है। यह नहीं कि हर स्थिति में पत्नी के प्रति बहुत प्रेम ही हो, बस पत्नी एक आदत बन जाती है, ज़िन्दगी के ढर्रे का एक ज़रूरी हिस्सा, जिसकी अनुपस्थिति में ढर्रा गड़बड़ाने लगता है। अक्सर पत्नी की अनुपस्थिति कुछ ऐसी लगती है जैसे घर की कोई बहुत उपयोगी ऑटोमेटिक मशीन बिगड़ गयी हो। घर में उसकी उपस्थिति ज़रूरी होती है, लेकिन उसके प्रति कोई स्नेह या समझदारी का भाव नहीं होता।
तो दामाद साहब मीनू को ले जाने के लिए पधार गये। भारतीय समाज में दामादों का पधारना एक घटना होती है। घर में एक ज़लज़ला उठता है। प्रेम और ख़िदमत के भाव गड्डमड्ड हो जाते हैं।
यहां भी यही हुआ। सास और दोनों सालियां दामाद साहब की सेवा में लग गये। क्या खिलायें? कहां घुमायें? दामाद से संबंध में केवल स्नेह का ही भाव नहीं होता, अन्यथा साले को अपनी बहन के घर में भी वैसा ही सम्मान मिलता। इसकी पृष्ठभूमि में वरपक्ष की श्रेष्ठता और कन्यापक्ष की घटिया स्थिति होती है। दामाद की खातिर के लिए और उसे अच्छी विदाई देने के लिए सास-ससुर कोनों में फुसफुसाते हैं, कर्ज लेते हैं और दामाद साहब सब जानते हुए भी टांग पर टांग धरे शेषशायी मुद्रा में पड़े विदाई के सुखद क्षण की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
दामाद के आने से मीनू की मां खुश भी हुई और दुखी भी। बेटी के चले जाने की सोच कर दिल भारी हो गया। विवाह के बाद बेटी पर कैसे अधिकार खत्म हो जाता है। उधर से हुक्म आता है और उसका तुरन्त पालन करना पड़ता है। मां अब अक्सर चिन्तित रहती थीं। काम करते-करते रुक कर सोच में डूब जाती थीं। मीनू के साथ-साथ बुलबुल के चले जाने की बात उन्हें और ज़्यादा व्याकुल करती थी।
मां वैसे भी बहुत संवेदनशील थीं। बेटियों की जुदाई उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। मीनू की शादी में विदा के वक्त ऐसी हड़बड़ायीं कि सीढ़ी से उतरने में लुढक गयीं। घुटने और हाथ में खासी चोट आयी । उसी स्थिति में मीनू को उनसे विदा लेनी पड़ी थी। अब मीनू के जाने में तीन-चार दिन थे, लेकिन वे अकेली होने पर अपने आंसू पोंछती रहती थीं। पति और दोनों छोटी बेटियों पर चिड़चिड़ाती रहतीं।
दामाद साहब के आने के बाद से महरी पर सुकर्ती को भेजने के लिए दबाव बढ़ने लगा था। अब महरी के लिए बात को टालना मुश्किल हो रहा था। अन्ततः बात सुकर्ती के बाप तक पहुंच गयी। एक दिन सवेरे वह मीनू के घर आया। सांवला, तगड़ा, सलीके से बात करने वाला आदमी था।
हाथ जोड़कर मीनू से बोला, ‘आप ले जाओ बाई सुकर्ती को। हमने सुना तो हमें बड़ी खुशी हुई। लड़की की जिन्दगी सुधर जाएगी। बल्कि वहीं कोई लड़का देख कर उसकी शादी करवा देना। उसकी मां की बात पर ध्यान मत देना। वह मूरख है। सुकर्ती आपके साथ जरूर जाएगी।’
घर में सब खुश हो गये। किला फतह हो गया। लेकिन उस दिन से महरी बहुत उदास रहने लगी। आती तो बहुत धीरे-धीरे बात करती। सुकर्ती से पहले से ज़्यादा प्यार से बात करती। पहले से ज़्यादा उसका खयाल करती।
अन्ततः वह दिन आ गया जब मीनू को प्रस्थान करना था। मां का कलेजा फटने लगा। सब सामान तैयार हो गया। घर के सब सदस्य बुलबुल को बारी-बारी से गोद में लेकर प्यार करने लगे। सुकर्ती अपनी पोटली लेकर आ गयी थी। साथ मां-बाप थे। महरी का जी दुख से भरा था। आंखों में आंसू भरे, आंचल को मुंह में ठूंसे वह चुपचाप खड़ी थी। लेकिन सुकर्ती एक लुभावनी दुनिया की आशा में खुश थी।
मीनू विदा हो गयी। पिता और सुकर्ती का बाप उन्हें छोड़ने स्टेशन गये। मेहमान अपने पीछे सन्नाटा, शून्य और दुख छोड़ गये। घर के पुराने सन्तुलन को मीनू और बुलबुल के आगमन ने तोड़ा था और अब घर उसी पुराने सन्तुलन पर लौटने की पीड़ादायक प्रक्रिया से गुज़र रहा था।
मीनू के जाते ही मां आंखों को साड़ी से ढक कर पलंग पर ढह गयीं और दोनों बेटियां कुर्सियों पर चुप-चुप बैठ गयीं।
महरी एक कोने में बांहों पर सिर रखे बैठी थी। थोड़ी देर में उसके मुंह से रुलाई का हल्का सवार निकलने लगा, जैसे कि पीड़ा को दबाये रखना कठिन हो गया हो।
उसकी आवाज़ सुनकर मीनू की मां चौंक कर पलंग पर बैठ गयीं। दोनों बहने भी चौंकीं।
मां उठकर उसके पास आयीं और उसके नज़दीक उकड़ूं बैठ गयीं। उनके चेहरे पर आश्चर्य का भाव था। बैठकर बोलीं, ‘अरे, तुम रो रही हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि सुकर्ती आराम से रहेगी। रोने की क्या बात है?’
जवाब में महरी का स्वर और ऊंचा हो गया। मीनू की मां की समझ में नहीं आ रहा था कि महरी खुश होने के बजाय रो क्यों रही थी। दोनों बहनें भी यह समझ नहीं पा रही थीं कि सुकर्ती के इतनी अच्छी जगह जाने पर महरी को खुशी क्यों नहीं हो रही थी।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈