डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर समसामयिक रचना किनको, किन-‘को-रोना’ रे। आज यही जीवन का कटु सत्य भी है। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य # 42 ☆
☆ किनको, किन-‘को-रोना’ रे☆
कौन कहां के बापू माई
कौन, कहां मृगछौना रे,
अपनी-अपनी मगज पचाई
किनको, किन-को-रोना रे ।।
प्रीत लगाई बाहर से
बाहर वाले ही भाये
ये अनुयाई हैं उनके जो
अपनों को ठुकराए,
ठौर ठिकाना अलग सोच का
इनका अलग बिछौना रे।
अपनी-अपनी मगज पचाई
किनको, किन-को-रोना रे ।।
जो भीषण संकट में भी
अपना ही ज्ञान बघारे
हित चिंतक का करें मखौल
भ्रष्ट बुद्धि मिल सारे,
इनके कद के सम्मुख लगे
आदमी बिल्कुल बौना रे।
अपनी-अपनी मगज पचाई
किनको, किन-को-रोना’ रे।।
ये ही हैं उनके पोषक
जो घर को तोड़े फोड़े
आतंकी है इनके प्रिय
उनसे ये नाता जोड़ें,
अपना मरे, सिले मुँह इनके
उन पर रोना धोना रे।
अपनी-अपनी मगज पचाई
किनको, किन-को-रोना रे ।।
“सर्वे भवन्तु सुखिनः”का
ये मूल मंत्र अपनाएं
अच्छे बुरे पराए अपने
सबको गले लगाएं,
मिलजुल कर सब रहें
हृदय में प्रेम बीज को बोना रे ।
कौन कहां के बापू माई
कौन कहां मृगछौना रे,
अपनी-अपनी मगज पचाई
किनको, किन-को-रोना रे ।।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश
मो. 989326601