श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-७ ☆ श्री सुरेश पटवा
बस में बैठे, किष्किंधा कांड याद आ रहा है। यह वही क्षेत्र है, जहाँ तुलसीदास ने तारा को विकल देख
तारा बिकल देखि रघुराया।
दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
श्रीराम से कहलाया है,
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा
तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है। शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान् के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया।
अब हम हम्पी के खंडहरों के नज़दीक पहुँचने लगे हैं। थोड़ा इतिहास समझ लें। उत्तर भारत से दक्षिण भारत का भूगोल अलग तरह का रहा है। जब उत्तर में सोलह महाजनपद के माध्यम से राज्य आकार लेने लगे थे। उस समय दक्षिण में चेर, चोल, पांड्यन, त्रावणकोर, कोचीन, ज़ामोरिन, कोलाथुनाडु, चालुक्य, पल्लव, सातवाहन, राष्ट्रकूट अस्तित्व में थे।
दक्षिण भारत में इस्लाम प्रवेश उपरांत ख़िलजी वंश का अंत हो गया। तब गयासुद्दीन ने तुग़लक़ वंश की नींव रखी। गयासुद्दीन तुगलक के शासनकाल में ही जूना खां जो बाद में मुहम्मद तुगलक (1325-1351) के नाम से सुल्तान बना, उसने दक्षिण भारतीय राज्य वारंगल पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। इस प्रकार वारंगल की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी और वह दिल्ली सल्तनत का अंग बन गया।
मुहम्मद बिन तुगलक की विस्तारवादी नीति से दक्षिण भारत का इतना भाग सल्तनत के आधिपत्य में आ गया कि उसमें और अधिक विस्तार करने की इच्छा स्वाभाविक रूप से जाग उठी। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण भारत के द्वासमुद्र, मावर तथा अनैगोडी राज्यों के विरुद्ध अभियान किए और इस प्रकार दक्षिण का पूरा पश्चिमी तट उसके अधिकार में आ गया। परन्तु वह जीत अस्थायी सिद्ध हुई। जल्द ही इस क्षेत्र में में भयंकर विद्रोह हुए और अंत में दक्षिण के सम्पूर्ण क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हो गये।
सरहिंदी के अनुसार मुहम्मद तुगलक के शासनकाल का प्रथम विद्रोह सुल्तान के चचेरे भाई बहाउद्दीन ने किया जो दक्षिण में उसका हाकिम था। इब्नबतूता के अनुसार गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद बहाउद्दीन ने मुहम्मद तुगलक के प्रति स्वामि-भक्ति की शपथ लेने से इंकार कर दिया। किन्तु इसामी का कहना है कि मुहम्मद तुगलक ने उसे गुर्शप की उपाधि दी और उसे फिर दक्षिण भेजा। जहां उसने बड़ा यश प्राप्त किया।
इसके अतिरिक्त राजधानी से दूर एक सम्पन्न व धन-धान्य से परिपूर्ण सूबे का शासक होना एक महत्त्वाकांक्षी सैनिक के लिए स्वतंत्र होने का समुचित प्रलोभन है। गुर्शप ने युद्ध की पूरी तैयारी की, बहुत सा धन जमा किया और दक्षिण के शक्तिशाली सामंतों को अपनी ओर मिलाया पराजय की संभावना से उसने अपने परिवार की रक्षा के लिए कंपिली के हिन्दू राजा से मित्रता कर ली। उसने ख़ुदमुख़्त्यारी घोषित करके उसने निकटवर्ती सामंतों से भूमि कर वसूलना आरंभ कर दिया।
मुहम्मद तुग़लक़ ने सूचना पाते ही गुजरात के सूबेदार ख्वाजा-ए-जहाँ अहमद अय्याज को प्रस्थान के लिए आदेश दिया। गुर्शप ने तुरंत गोदावरी पार की और देवगिरि से पश्चिम की ओर बढ़ा। अय्याज ने देवगिरि पर कब्जा कर लिया। अंत में गुर्शप ने पराजित होकर कंपिली के हिन्दू शासक के यहां शरण ली। कंपिली एक छोटा सा राज्य था जिसमें आधुनिक रायचूर, धारवाड़ बेल्लारी (हम्पी) तथा इसके आसपास के क्षेत्र सम्मिलित थे। प्रारम्भ में कंपिली के राजा देवगिरि के यादवों के अधीन उनके मित्र थे।
तुग़लक़ ने कंपिली पर विरुद्ध तीन बार आक्रमण किए। प्रथम आक्रमण में मुस्लिम सेना को पराजित होकर भागना पड़ा और कंपिली की सेना को अत्यधिक लूट का माल प्राप्त हुआ। सुल्तान की सैनिक पराजय से उसके गौरव को क्षति पहुंची और पहली बार हिन्दू जनता का यह भय समाप्त हो गया कि मुस्लिम सेना अजेय है। यह विदित हो गया कि दक्षिण के हिन्दू काफी शक्तिशाली है जिनको दबाना इतना सरल नहीं है। कंपिली के राजा ने भी राज्य की रक्षा की पूर्ण तैयारियाँ की और हुसदुर्ग तथा कूमर के किलों को पूरी तरह युद्ध सामग्री से भर दिया। दूसरी बार भी मुस्लिम् सेना कुतुबुल्मुल्क के साथ जान बचाकर भाग गयी।
इसके बाद सुल्तान ने अपने विश्वसनीय मित्र मलिकजादा, ख्वाजा-ए-जहान की अध्यक्षता में विशाल सेना कंपिली राज्य के विरूद्ध भेजी। कंपिली के राजा ने एक महीने तक शत्रु का डटकर सामना किया। परन्तु जब बचने की कोई स्थिति न रही तो गुर्शप को द्वारसमुद्र के राजा बल्लाल तृतीय की रक्षा में परिवार सहित भिजवा दिया और शत्रु से अंतिम युद्ध करने का संकल्प किया गया। उसने जौहर सम्पन्न किया और अपनी समस्त सम्पत्ति, स्त्रियां और पुत्रियां अग्नि में भस्म कर दीं। स्वयं शस्त्र धारण करके शत्रु पर टूट पड़ा। कंपिली नरेश ने भयंकर युद्ध के बाद रणक्षेत्र में ही वीरगति प्राप्त की। मुहम्मद तुग़लक़ सेना का किले पर अधिकार हो गया।
दूसरी तरफ़ बल्लाल ने मलिक के आक्रमण के बाद थोड़े समय में सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ की प्रभुसत्ता से विद्रोह कर वार्षिक कर भेजना बंद कर दिया और इसी अवधि में कंपिली के राज्य को भी जीतने का विचार किया। उसकी तीव्र इच्छा थी कि होयसल राज्य का भाग जो सुदूर दक्षिण के पांड्य राजाओं के अधिकार में है, वापस ले लिया जाए। इसी उद्देश्य से 1316 ई. में पांड्य राजाओं से युद्ध आरम्भ किया। जब वह इस प्रकार आसपास के राजाओं के साथ युद्ध में व्यस्त था। इसी बीच मोहम्मद तुगलक की सेना ने द्वारसमुद्र की सेना पर आक्रमण कर दिया। मुहम्मद तुग़लक़ ने दक्षिण में देवगिरि को दौलताबाद का नाम देकर राजधानी बना लिया। इसे दक्षिण में एक प्रभावशाली प्रशासन केन्द्र स्थापित करने का प्रयास कहा जा सकता है। प्रो. हबीब के अनुसार “मुहम्मद तुगलक अपने किसी भी समकालीन से अधिक दक्षिण को जानता था।” उसका दक्षिणी प्रयोग एक विशेष सफलता थी। यद्यपि उत्तर को दक्षिण से विभाजित करने वाले अवरोध टूट गए थे तथापि दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक शक्ति दक्षिण में प्रसार में सफल सिद्ध नहीं हुई।
हम्पी विश्व विरासत क्यों है। इसे समझने हेतु हमें दक्षिण भारत की संक्षिप्त इतिहास को देखना आवश्यक है कि किस तरह धार्मिक उन्माद ने एक फलती फूलती सभ्यता को नेस्तनाबूद करने का पाप किया लेकिन फिर भी उसके अवशेष आज उन आततायियों के जुल्मों की कहानी कहते खड़े हैं। हम्पी के पचास किलोमीटर वर्गकिलोमीटर ने बिखरे क़िला, महल, मकान, दुकान, बाज़ार, बावड़ी, मंदिर और मूर्तियों के खंडित अवशेष गौरवशाली हिंदू सभ्यता की कहानी कहते खड़े हैं।
मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण प्रदेशों की पांच प्रांतों में विभक्त कर दिया। (1) देवगिरि, (2) तेलंगाना, (3) माबर, (4) द्वारसमुद्र और (5) कंपिली। दिल्ली साम्राज्य के इन दक्षिण प्रदेशों में विंध्य पर्वत के दक्षिण से लगभग मदुरा तक की समस्त भूमि सम्मिलित थी। तेलंगाना को अनेक भागों में विभक्त करके उनके लिए अलग-अलग सूबेदार नियुक्त कर दिए गए। धीरे-धीरे इन हाकिमों ने स्थानीय हिन्दू राजाओं से संपर्क स्थापित करके अपना प्रभाव बढ़ाने की चेष्टा की। दक्षिण की दूरी दिल्ली से इतनी अधिक थी कि सुल्तान इच्छा रखते हुए भी दक्षिणी प्रांतों पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकता था इसलिए दक्षिण के प्रांतपति अधिक स्वतंत्र रहे। दक्षिण के हाकिमों एवं स्थानीय हिन्दू शासकों के हृदय में सुल्तान के प्रति स्वाभाविक आज्ञाकारिता की भावना बहुत कम थी। अतः तुर्की सरदार स्वतंत्र शासक होने का स्वप्न देखा करते थे। केवल सुविधा और स्वार्थ का ध्यान रखकर ही वे अपनी राजभक्ति की मात्रा स्थिर करते थे। राजधानी परिवर्तन के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारण था। दुर्भाग्यवश सुल्तान अपनी नई राजधानी में उत्तरी भारत के विद्रोहों और अकालों के कारण अधिक समय तक नहीं टिक सका। दक्षिण के हिन्दू राजा अपने वंश तथा धर्म के अभिमान को भूले नहीं थे तथा अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए सदा अवसर की तलाश में रहा करते थे। यही कारण है कि दक्षिण समस्या का समाधान उचित ढंग से नहीं हो पाया और कालांतर में कम्पिली स्वतंत्र हो गया।
अंत में मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के उद्येश्य से कम्पिली पर फिर आक्रमण कर दिया और कम्पिली के दो काबिल मंत्रियों हरिहर तथा बुक्का को बंदी बनाकर दिल्ली ले आया। इन दोनों भाइयों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद इन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया। माना जाता है वे दोनों विद्यारण्य नामक सन्त के प्रभाव में आकर पुनः हिन्दू धर्म को अपना लिया। इस तरह हरिहर तथा बुक्का मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में ही भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कर दी। उसी विजयनगर की समृद्ध राजधानी के खंडहर हम्पी में हैं। विजयनगर की विरासत पर ही अठारहवीं सदी में शिवाजी ने हिन्द स्वराज की स्थापना की थी। हम्पी के विनाश तक पहुँचने हेतु बहमनी साम्राज्य की उत्पत्ति और विनाश से उपजे पाँच मुस्लिम राज्यों गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बिरार और अहमदनगर की कहानी भी समझनी होगी।
क्रमशः…
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈