श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है स्त्री जीवन के कटु सत्य को उजागर कराती एक सार्थक रचना ‘दाना – पानी‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकते हैं । )
☆ दाना – पानी ☆
नित रखती हूँ परिंदों के लिए दाना – पानी
वो करते हैं मेरी आवाजाही पर निगरानी
मैं रखती हूँ दाना
निकलती हूँ घर से , जुटाने दाना – पानी
दिखतें है कई बाजनुमा शिकारी
वो भी रखतें है मेरी आवाजाही पर निगरानी
मैं बन जाती हूँ दाना और
लोलुप जीभ का पानी
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र