श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 329 ☆
व्यंग्य – एक धांसू व्यंग्य की रचना… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
क्या बात है आज बड़े प्रसन्न लग रहे हैं. घर पहुंचते ही पत्नी ने उलाहना देते स्वर में उनसे पूछा.मनोभाव छिपाते हुये वे बोले, कुछ तो नही. मैं तो सदा खुश ही रहता हूं. खुश रहने से पाजीटिवीटी आती है. व्यंग्यकार जी ने व्हाट्सअप ज्ञान बघारते हुये जबाब दिया. पर मन ही मन उन्होंने स्वीकार किया कि सच है इन पत्नियों की आंखो में एक्स रे मशीन फिट होती है. ये हाव भाव से ही दिल का हाल ताड़ लेती हैं. इतना ही नही पत्नी की पीठ भी आपकी ओर हो तो भी वे समझ लेती हैं कि आप क्या देख सुन और कर रहे होंगे. बिना बातें सुने केवल मोबाईल के काल लाग देखकर ही उन्हें आधे से ज्यादा बातें समझ आ जाती हैं. पत्नी के सिक्स्थ सेंस को व्यंग्यकार जी ने मन ही मन नमन किया और अपनी स्टडी टेबल पर जा बैठे. बगीचे के ओर की खिड़की खोली और आसमान निहारते हुये एक धांसू फोड़ू व्यंग्य रचना लिखने का ताना बाना बुनने लगे.
दरअसल व्यंग्यकार जी को देश के श्रेष्ठ १०१ रचनाकारों वाली किताब के लिये व्यंग्य लिखने का मौका मिल रहा था. वे इस प्रोजेक्ट में अपनी सहभागिता को लेकर मन ही मन खुशी से फूले नही समा रहे थे. उन्होंने तय किया था कि इस किताब के लिये वे एक चिर प्रासंगिक व्यंग्य की रचना करेंगे. कुछ शाश्वत लिखने के प्रति वे आश्वस्त थे. उन्होंने अपनी कलम चूम ली. जब चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी अपनी तीन कहानियों से हिन्दी साहित्य में अमरत्व प्राप्त कर चुके हैं, फिर वे तो आये दिन लिख ही नही रहे छप भी रहे हैं.पर अखबारो में छपने और जिल्द बंद किताब में छपने का अंतर वे खूब समझते हैं इसलिये व्यंग्यकार जी अपने ज्ञान और व्यंग्य कौशल से कुछ जोरदार धारदार ऐसा लिखने का प्लान बना रहे थे जो हरिशंकर परसाई जी के लेखो की तरह हर पाठक की पसंद बन सके. जिसे शरद जी के प्रतिदिन की तरह शारदेय कृपा मिल सके.
व्यंग्यकार जी की पहली समस्या थी कि व्यंग्य किस विषय पर लिखा जाये, जो एवर ग्रीन हो लांग लास्टिंग हो सीधे सीधे कहें तो आज रात एक धांसू व्यंग्य की रचना कर डालना उनका टारगेट था ? व्यंग्यकार जी अच्छी तरह जानते थे कि शाश्वत मूल्यो वाली रचना वही हो सकती है, जिसमें व्यंग्यकार जन पीड़ा के साथ खड़ा हो. ए सी कमरे में रिवाल्विंग चेयर पर बैठ आम आदमी की तकलीफों को महसूसना सरल काम नही होता. काफी पीते हुये सिगरेट के कश से मूड बनाकर व्यंग्यकार जी शाश्वत टापिक ढ़ूंढ़ने लगे. सोचा कि अखबारी खबरों की मदद ली जाये, पर तुरंत ही उन्हें ध्यान आया कि व्यंग्य गुरू ने कल ही एक चर्चा में कहा था कि खबरो पर लिखे व्यंग्य अखबार की ही तरह जल्दी ही रद्दी में तब्दील हो जाते हैं. मूड नही बन पा रहा था सो उन्होनें स्मार्ट टीवी का रिमोट दबा दिया, शायद किसी वेब सिरीज से कोई प्लाट मिल जाये, पर हर सिरीज में मारधाड़ और अश्लीलता ही मिली. उन्होने सोचा वे इतना फूहड़ नही लिख सकते.
अनायास उनका ध्यान व्यंग्य के साथ जुड़े दूसरे शब्द ” हास्य ” की ओर गया. हाँ, मुझे हास्य पर ही कुछ लिखना चाहिये उन्होंने मन बनाया. हंसी ही तो है जो आज सबके जीवन से विलुप्त हो रही है. वे भीतर ही भीतर बुदबुदाये हंसी तो हृदय की भाषा है दूध पीता बच्चा भी माँ के चेहरे पर हास्य के भाव पढ़ लेता है. वे व्यंग्य तो लिख लेते हैं पर क्या वे हास्य भी उसी दक्षता से लिख पायेंगे, उन्होने स्वयं से सवाल किया. उन्होंने कामेडी शो से कुछ गुदगुदाता टाइटिल उठाने का मन बना लिया. फेमस कामेडी शो का चैनल दबाया, पर वहां तो भांडगिरी चल रही थी. पुरुष स्त्री बने हुये थे, जिनकी मटरगश्ती पर जबरदस्ती हंसने के लिये भारी पेमेंट पर सेलीब्रिटी को चैनल ने सोफा नशीन किया हुआ था. बात व्यंग्यकार जी की ग्रेविटी के स्तर की नही थी. और आज उन्होने तय किया था कि वे एंवई कुछ भी बिलो स्टैंडर्ड नही लिखेंगे. लिहाजा अपने लेखन में वे कोई काम्प्रोमाइस नही कर सकते थे, मामला जम नही रहा था.
तभी पत्नी ने फ्रूट प्लेट के साथ स्टडी रूम में प्रवेश किया, मुस्कराते हुये बोली किस उधेड़बुन में हो. उन्होनें अपनी उलझन बता ही दी कि वे कुछ झकास व्यंग्य लिखना चाहते हैं. पत्नी ने भी पूरी संजीदगी से साथ दिया बोली देखिये, व्यंग्य वही हिट होता है, जिसमें भरपूर पंच लाईनें हों. फिर अपनी बात एक्सप्लेन करते हुये बोली, पंच लाईने तो समझते ही हैं आप. साहित्यिक ढ़ंग से कहें तो जैसे कबीर के दोहे या सीधे सीधे रोजमर्रा की बातों में कहूं तो वे ताने यानी व्यंग्यबाण जिनसे सासें अपनी बहुओ को बेधकर बेवजह बुरा बनती हैं. उन्हें गुस्सा आ गया वे स्थापित व्यंग्यकार हैं और पत्नी उन्हें व्यंग्य में पंच लाईनो का महत्व बता रही है, वे तुनककर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये बोले अरे तुम तो रचना के विन्यास की बात कर रही हो इधर मैं सब्जेक्ट सर्च कर रहा हूं.
पत्नी ने चुटकियो में प्राब्लम साल्व करते हुये कहा तो ऐसा कहिये न. सुनिये व्यंग्य वही फिट होता है जो कमजोर के पक्ष में लिखा जाये. फिर उसने समझाते हुये बात बढ़ाई, वो अपन खाटू श्याम के दर्शन के लिये गये थे न. वे ही खाटू श्याम जो हमेशा हारते का सहारा होते हैं , व्यंग्यकार को भी हमेशा ताकतवर से टक्कर लेते हुये कमजोर के पक्ष में लिखना चाहिये.पत्नी की बात में दम था. एक बार फिर व्यंयकार जी पत्नियों के सामान्य ज्ञान के कायल हो गये. यूं ही नही हर पत्नी चाहे जब ठोंककर कह देती है, “मैं तो पहले ही जानती थी “. पर उन्होनें रौब जमाते हुये कहा, यार तुम भटक रही हो, मेरी समस्या व्यंग्य की नही टापिक को लेकर है. एक बार यूनिवर्सल टापिक डिसाइड हो जाये फिर तो मैं खटाखट कंटेट लिख डालूंगा.तुम तो देखती ही हो मैं कितने फटाफट धाकड़ सा व्यंग्य लिख लेता हूं. इधर घटना घटी नही कि मेरा व्यंग्य तैयार हो जाता है और अगली सुबह ही अखबारो में छपा मिलता है. फिर उन्हें व्यंग्य लेखन और प्रकाशन कि इस सुपर फास्ट गति से तेज एनकाउंटर की याद हो आई, जिसमें अपराधी के पकड़ आने पर उनका व्यंग्य संपादक के मेल बाक्स में पहुंच पाता इससे पहले ही एनकाउंटर हो गया और व्यंग्य की भ्रूण हत्या हो गई.
वे बोले, मुझे ऐसा सब्जेक्ट चाहिये, जो हिट हो और सबके लिये सदा के लिये फिट हो. अच्छा तो मतलब आप बच्चा होने से पहले ही उसका नाम तय करने को कह रहे हैं, पत्नी ने कहा. कुछ सोचते हुये वह बोली, चलिये कोई बात नही, चुनावों पर लिख डालिये इतने सारे चुनाव होते रहते हैं देश विदेश में जब भी चुनाव होंगें, आपका व्यंग्य सामयिक हो जायेगा. नहीं, नहीं, चुनावों पर बहुत लिखा जा चुका है. उन्होने तर्क दिया. हम्मम, कुछ सोचते हुये पत्नी बोली हिंदू मुस्लिम पर लिखिये, साल दो साल में दंगे फसाद होते ही रहते हैं, आपका व्यंग्य चकाचक बना रहेगा. अरे भाई मैं सरकारी अफसर हूं, और उससे भी पहले एक भारतीय मैं कोई सांप्रदायिक बात नही लिखना चाहता, व्यंग्यकार जी का जबाब तर्कसंगत था. पत्नी ने सुझाया, अच्छा तो भ्रष्टाचार पर लिखिये, जब तक लेन देन रहेगा, कमीशन रहेगा, घोटाले रहेंगें, आपका व्यंग्य रहेगा. उन्होने बात काटते हुये कहा नहीं. कहने तो लोग यह भी कहते थे कि “जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू”. लालू को मैनेजमेंट पर व्याख्यान के लिये हावर्ड बुलाया जाता था, पर देखा न तुमने कि लालू किस तरह जेल में है, मैं ऐसे मैटर पर जोरदार, असरदार, लगातार बार बार पढ़ा जाने वाला व्यंग्य भला कैसे लिख सकता हूं, अब डिजिटल पेमेंट का जमाना है, अब जल्दी ही कमीशन और परसेंटेज गुजरे जमाने की बातें हो जायेंगे. पत्नी को व्यंग्यकार जी का यह आशावाद यथार्थ से बहुत परे लग रहा था, पर फिर भी उसने बहस करना उचित नही समझा और अपने हर सजेशन के रिजेक्शन से ऊबते हुये टरकाने के लिये सुझाया कि आप कोरोना पर लिख डालिये. व्यंग्यकार जी ने भी चिढ़ते हुये प्रत्युतर दिया, हाँ इधर कोरोना की वैक्सीन बनी और उधर मेरा व्यंग्य गया पानी में. मैने कहा न कि मैं कुछ धांसू व्यंग्य लिखना चाहता हूं जो फार एवर रहे. मेरा मतलब है जैसे तुम्हारे चढ़ाव के कंगन, पत्नी के खनकते कंगनो को देखते हुये व्यंग्यकार जी उसकी काम की भाषा में बोले. पत्नी ने भी तुरंत बाउंड्री पर कैच लपका, बोली ये आपने अच्छी बात कही.सुनिये सोना बहुत मंहगा हो रहा है, एक सैट ले लीजीये, बेटे के चढ़ाव में काम आयेगा इसी बहाने बचत हो जायेगी. आपका व्यंग्य रहे न रहे पर मेरा कंगन पुश्तैनी है, यह शाश्वत है, यह हमेशा रहेगा. व्यंग्यकार जी को भी समझ आया कि सोना शाश्वत है, और वे एक धांसू व्यंग्य की रचना का सपना देखने सोने चले गये.
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© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈