डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख महाकुंभ – रिश्ते-नाते…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 264 ☆
☆ महाकुंभ – रिश्ते-नाते… ☆
महाकुंभ देश में हरिद्वार, उज्जैन, नासिक व प्रयागराज चार स्थानों पर बारह वर्ष के पश्चात् आयोजित किया जाता है। यह विश्व का सबसे बड़ा आध्यात्मिक व अद्वितीय मेला है जो क्रमानुसार चारों तीर्थ-स्थानों पर आयोजित किया जाता है। कुंभ मेला चार प्रकार का होता है–कुंभ, अर्द्धकुंभ, पूर्णकुंभ व महाकुंभ में खगोलीय कारणों के आधार पर भिन्नता होती है। अर्द्धकुंभ मेला 6 वर्ष पश्चात् हरिद्वार व प्रयागराज में लगता है और महाकुंभ पूर्णकुंभ के पश्चात् 144 वर्ष में एकबार लगता है।
ज्योतिष के अनुसार गुरू बृहस्पति प्रत्येक राशि में मेष से मीन तक गोचर करने में 12 वर्ष लगते हैं। इसी कारण 12 वर्ष पश्चात् महाकुंभ का आयोजन होता है। देव-असुर युद्ध 12 दिन अर्थात् मृत्यु लोक के 12 वर्ष तक हुआ और अमृत कलश से चंद बूंदे प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक व उज्जैन में गिरी और उन्हीं स्थानों पर कुंभ का आयोजन होने लगा।
महाकुंभ 2025 का आयोजन 13 जनवरी से 26 फरवरी तक प्रयागराज में होगा। आस्था के संगम में जो भी डुबकी लगाता है; उसे आध्यात्मिक ऊर्जा, आत्मशुद्धि व मोक्ष की प्राप्ति होती है। महाकुंभ मेला इस वर्ष 45 दिन तक चलेगा। यह पौष पूर्णिमा से प्रारंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलेगा। सर्वप्रथम साधु-संतों का शाही स्नान होता है। तत्पश्चात्सब लोग मिलकर प्रेम से डुबकी लगाते हैं तथा पुण्य प्राप्त करते हैं। उस समय उनके हृदय में केवल आस्था, श्रद्धा व भक्ति भाव व्याप्त रहता है। वे स्व-पर, राग-द्वेष व रिश्ते-नातों से ऊपर उठ जाते हैं। उनके हृदय में वसुधैव कुटुंबकम् का भाव व्याप्त रहता है। वास्तव में घर-परिवार में प्रेम, सौहार्द, समन्वय व सामंजस्यता स्थापित करना श्रेयस्कर है।
यदि हम इसे परिभाषित करें तो मिलजुल कर रहना, एक-दूसरे की भावनाओं को समझना व सम्मान देना ही महाकुंभ है। इस स्थिति में मानव तुच्छ स्वार्थों व संकीर्ण मानसिकता का त्याग कर बहुत ऊँचा उठ जाता है। संवेदनशीलता हमारे मनोभावों को संस्कारित वह शुद्धता प्रदान करती है और वे संस्कार हमें संस्कृति से प्राप्त होते हैं। संस्कृति हमें सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की ओर ले जाती है और जीने की राह दर्शाती है। इससे हमारे हृदय में दैवीय भाव उत्पन्न होते हैं। हम मानव-मात्र में सृष्टि-नियंता की सत्ता का आभास पाते हैं।
ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या की अवधारणा से तो आप सब परिचित होंगे। माया के कारण यह संसार हमें मिथ्या भासता है। माया रूपी ठगिनी पग-पग पर हाट लगाय बैठी है तथा इसने सबको अपने मोह-पाश में बाँध रखा है। प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। “मौसम भी बदलते हैं, दिन-रात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है, जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का, नग़मात बदलते हैं।”
समय परिवर्तनशील है, निरंतर चलता रहता है। सुख-दु:ख दोनों का चोली दामन का साथ है तथा एक के जाने के बाद दूसरा दस्तक देता है। संसार में सब मिथ्या है, कुछ भी स्थायी नहीं है। “यह किराए का मकान है/ कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।” इस नश्वर संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं है। इसलिए मानव को आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर आगे बढ़ना चाहिए। ‘एकला चलो रे’ की राह पर चलकर मानव अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है।
मानव के लिए सबके साथ मिलकर रहना बहुत कारग़र है। आजकल रिश्ते-नाते सब स्वार्थ में आकण्ठ डूबे हुए हैं। कोई किसी का हितैषी और विश्वास के क़ाबिल नहीं है। रिश्तों को मानो दीमक चाट गई है। घर-आँगन में उठी दरारें दीवारों का रूप धारण कर रही हैं। संबंध- सरोकार समाप्त हो गए हैं। परंतु कोरोना ने हमें घर-परिवार व रिश्ते-नातों की महत्ता समझाई और हम पुन: अपने घर में लौट आए। बच्चे जो बरसों से कहीं दूर अपना आशियाँ बना चुके थे, अपने परिवार में लौट आए। इतना ही नहीं, हम अपनी संस्कृति की और लौटे और हैलो-हाय व हाथ मिलाने का सफ़र समाप्त हुआ। हम दो गज़ दूरी से नमस्कार करने लगे। पारस्परिक सहयोग की भावना ने हृदय में करवट ली तथा एक अंतराल के पश्चात् दूरियाँ समाप्त होने के पश्चात् ऐसा लगा कि वह समय हमारे लिए वरदान था। कोरोना के समय हम केवल अपने परिवार व रिश्तेदारों से ही नहीं जुड़े बल्कि जनमानस के प्रति हमारे हृदय में करुणा, सहानुभूति, सहयोग, त्याग व सौहार्द का भाव जाग्रत हुआ। मानवता व मानव-मात्र के प्रति प्रेम हमारे हृदय में पल्लवित हुआ। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि यदि आपके हृदय में मनो-मालिन्य व ईर्ष्या-द्वेष का भाव व्याप्त है तो आपके महाकुंभ में स्नान करने का कोई औचित्य नहीं है। जहाँ आस्था, प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहानुभूति, त्याग व श्रद्धा का भाव व्याप्त है, वहीं महाकुंभ है और मन का प्रभु सिमरन व चिंतन में लीन हो जाना महाकुंभ का महाप्रसाद है।
सो! महाकुंभ के महात्म्य को समझिए व अनुभव कीजिए। अपने माता-पिता में गुरुजनों का सम्मान कीजिए और असहाय व वंचित लोगों की सेवा कीजिए। जो आपके पास है, उसे दूसरों के साथ बांटिए, क्योंकि “दान देत धन ना घटै, कह गये भक्त कबीर।” हम जो भी दूसरों को देते हैं, लौटकर हमारे पास आता है, यह संसार का नियम है। इसलिए लोगों के हृदय में अपना घर बनाइए। सुख-दु:ख में समभाव से रहिए तथा सुरसा की भांति बढ़ती हुई इच्छाओं पर अंकुश लगाइए। सहज जीवन जीते हुए परहित करना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम कार्य है, जो मुक्ति-प्रदाता है।
‘यह जीवन बड़ा अनमोल/ मनवा राम-राम तू बोल।’ मानव जीवन चौरासी लाख योनियों के पश्चात् मिलता है। इसलिए ‘एक भी साँस न जाए वृथा/ तू प्रभु सिमरन कर ले रे। अंतकाल यही साथ जाए रे।’ यही मोक्ष की राह दर्शाता है। ‘जो सुख अपने चौबारे/ सो! बलख न बुखारे।’ इसके माध्यम से मानव को अपने घर को स्वर्ग बनाने की सीख दी गई है, क्योंकि घर में ही महाकुंभ है। सब पर स्नेह, प्यार व दुलार लुटाते चलो। दुष्प्रवृत्तियों को हृदय से निकाल फेंकिए। अनहद नाद में अवगाहन कर अलौकिक आनंद को प्राप्त कीजिए। प्रकृति सदैव तुम्हारे अंग-संग रहेगी तथा पथ-प्रदर्शन करेगी। एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निष्काम कर्म व त्याग महाकुंभ से भी बढ़कर है, क्योंकि स्नान करने से तो शरीर पावन होता है, मन तो आत्म-नियंत्रण, आत्म-चिंतन व आत्मावलोकन करने से वश में होता है। ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’ अर्थात् यदि मन पावन है, पंच विकारों से मुक्त है तो उसे किसी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं है। वैसे भी मन को मंदिर की संज्ञा दी गई है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित गीत की पंक्तियाँ जो उपरोक्त भाव को प्रेषित करती हैं– ‘मैं मन को मंदिर कर लूँ/ देह को मैं चंदन कर लूँ/ तुम आन बसो मेरे मन में/ मैं हर पल तेरा वंदन कर लूँ।’ सो! चंचल मन को एकाग्र कर ध्यान लगाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु जो भी ऐसा करने में सफल हो जाता है, जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
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© डा. मुक्ता
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