श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर
श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर मध्य प्रदेश के कटनी नगर के प्रतिष्ठित कवि एवं लेखक हैं । आप शासकीय सेवा से निवृत्त होने के उपरान्त अपना पूरा समय साहित्य, कला, संस्कृति को दे रहे हैं । यों तो नगर की समस्त साहित्यिक संस्थाओं में आपकी सक्रिय भागीदारी रहती है तथापि आप इंटेक कटनी चेप्टर में को कन्वीनर हैं । इनकी पुस्तक “ठाकुर राजेंद्र सिंह के बालगीत” काफी चर्चित रही । राजेंद्र सिंह जी कटनी क्षेत्र के पुरातत्व महत्व के क्षेत्रों सहित कटनी नगर की विरासत पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं ।
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व ““कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
स्व. खुइया मामा
☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ ☆
☆ “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆
कटनी शहर से 15 कि. मी. के फासले पर बिलहरी नामक क़स्बा है। यहाँ बौद्ध, जैन, कल्चुरी जैसे विभिन्न इतिहास काल के प्रचुर पुरा अवशेष पुरातत्व विभाग के संरक्षण में आज भी देखे जाते हैं। लोककथाओं, दंतकथाओं में कहा जाता है कि वर्तमान बिलहरी में कभी कर्णदेव नामक एक राजा थे। वह प्रतिदिन अपनी देवी की पूजा करते और खौलते तेल के कड़ाह में कूद कर स्वयं को देवी मां को समर्पित कर देते। प्रसन्न होकर देवी उन्हें पुनः जीवित कर सवा मन सोना देती थीं। आत्म बलिदान से प्राप्त धन को राजा प्रतिदिन गरीबों में बाँट देते थे।
कटनी के लोगों ने राजा कर्णदेव को तो नहीं देखा, किन्तु सन 1930 – 1980 के दौरान शहर में दान परंपरा के एक अन्य सामान्य पुरुष को देखा है, जिन्हें कटनी ही नहीं अन्य शहरों के लोग भी खुइया मामा के नाम से जानते थे, ये कटनी रेलवे स्टेशन के सामने एक पान दुकान का संचालन करते थे। इन्होंने एक छोटी सी दुकान से अर्जित कमाई से अपने जीवन में गरीबों को जो दान दिया वह आज के मूल्य के अनुसार करोड़ों रुपयों का होगा।
कटनी शहर का अस्तित्व सन 1867 में अंग्रेजों द्वारा मुड़वारा नामक छोटे से गाँव से कुछ दूर रेल स्टेशन स्थापित किये जाने से आया। धीरे धीरे अन्य शहरों के अमीर – गरीब जीविका की तलाश में यहाँ आकर बसने लगे। ऐसे ही लोगों में एक थे अग्रवाल परिवार के खुइया मामा जो चित्रकूट के निकट एक गांव से आकर कटनी में बस गए और रेलवे स्टेशन के बाहर पान दुकान का संचालन करने लगे। उस समय तक शहर इतना अधिक विकसित नहीं था। स्टेशन के पास ही कुछ चाय पान की दुकान थीं और वहां से बस्ती के बीच सूनापन रहता था। छह सवा छह फुट ऊँचे, पहलवानी कद काठी वाले मानवीय गुणों से ओतप्रोत खुइया मामा दबंग स्वभाव के थे। ये यात्रियों का उदार भाव से सहयोग भी करते थे। आपकी दुकान यात्रियों को सुरक्षा के प्रति आश्वस्त भी कराती थी। बाहर के यात्रियों के लिये आपकी दुकान एक तरह से अमानती सामान गृह एवं पूछताछ केंद्र की तरह भी थी। जिस समय अन्य दुकानों में पाँच पैसे का एक पान मिलता था, वहीँ आपकी दुकान में पांच पैसे में दो यानि जोड़ी से पान मिलते थे। अकेली पान दुकान एवं उदार स्वभाव होने के कारण आपका कारोबार चल निकला।
खुइया मामा की एक पुत्री थी जो वाक्यों का उच्चारण नहीं कर पाती थी। अतः उसके जीवन के प्रति उनके अंतर्मन में नमीं बनी रहती थी। खुइया मामा दोपहर का भोजन करने रिक्शे में बैठकर दुकान से घर को जाते थे। उस समय उनके साथ दुकान में अर्जित फुटकर सिक्कों की एक पोटली होती थी। कुर्ते के जेब में भी सिक्के भरे होते थे। जिन्हें राह में मिलने वाले गरीब याचकों को बांटते चलते थे। यह उनका नित्य नियम था। दो पैसे की आस में भिखारी और गरीब लोग उनके दुकान से चलने के पूर्व से ही वहां झुंड बनाकर एकत्र हो जाते थे। रास्ते में भी लोग उनके इंतजार में खड़े रहते थे और जब घर पहुंचते तो वहां भी पैसे पाने वालों का हुजूम उनके स्वागत में खड़ा मिलता था। खुइया मामा पैसों की पोटली या जेब से सिक्का निकाल कर सभी को देते चलते थे। कभी कभी तो उनकी पोटली खाली भी हो जाती थी। उनका यह नियम कोई तीस चालीस साल तक अनवरत चलता रहा। इस तरह खुइया मामा ने पान की दुकान से कमाए पैसों का एक बड़ा भाग नित्य के दान पुण्य में खर्च किया। उक्त राशि को बचाकर यदि उन्होंने मकान, जमीन खरीद कर रखे होते तो निश्चय ही आज उनका बाजार मूल्य करोड़ों रुपये में होता।
खुइया मामा की एक आदत और थी, जब चाहे वे पानी में फूले चने तलवा लेते, रसगुल्ला बनवा लेते और उसे आसपास के लोगों में वितरित करवाते। लोग छक कर खाते और आनंद मनाते।
गीता प्रेस गोरखपुर की धार्मिक पुस्तकें जिन्हें बेचने से कोई आर्थिक लाभ नहीं होता, इन्हें भी विक्रय के लिए खुइया मामा अपनी दुकान में उपलब्ध कराते थे। उस समय कटनी शहर में गीता प्रेस की पुस्तकों वाली यह अकेली दुकान होती थी, जहाँ से केवल स्थानीय लोग ही नहीं बल्कि अन्य शहरों के लोग भी पुस्तक खरीदने आते थे। सन 1984 में कटनी शहर के इस अनोखे दानवीर ने निर्वाण प्राप्त किया। वर्तमान में आपकी दुकान यद्यपि अपने पूर्व स्थान में नहीं रह गई है, किन्तु स्टेशन के सामने ही अन्य स्थान पर आपके पौत्र खुइया मामा पान भंडार का संचालन आज भी कर रहे हैं।
© श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर
कटनी (म. प्र.)
संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव
संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
अति प्रेरक प्रसंग।
संस्मरण के लिए लेखक को साधुवाद।