श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 332 ☆
कविता – चलन से बाहर हुए सिक्के… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भिखारी भी अब
कम से कम
दस रुपए चाहता है
क्यू आर कोड का स्टीकर
लगा रखा है उसने
दान दाताओं की
मदद के लिए
उस दिन मैं
टैक्सी से उतरा
निकालने लगा मीटर पर दिखते इकसठ रुपए सत्तर पैसे
तो ड्राइवर बोला रहने दो साहब , बस साठ रुपए दे दीजिए
या फिर पे टी एम ही कर दीजिए
उसे पैंसठ रुपए देकर मैने उसकी दरियादिली से निजात पाई
अब सिक्के बस बैंक के ब्याज के हिसाब में एक पासबुक एंट्री भर
बनकर रह गए हैं।
गुम हो चुकी है
सिक्कों की खनक
बस रुपए की गर्मी बची है
मोबाइल वैलेट में
चलन से बाहर हो चुके हैं
सिक्के।
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© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈