सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा -ब्रेन ड्रेन।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 44 – लघुकथा – ब्रेन ड्रेन
“क्या बात है शुक्ला जी, आजकल सैर करते हुए नज़र नहीं आते? सब ठीक तो है न?”
“जी बोस दादा, सब ठीक ही है। बेटे इंजीनियरिंग करके अब विदेश जाने की तैयारी कर रहे हैं और मैं ओवरटाइम करके धन जुटाने में लगा हूँ। “
“हमारी हालत देख रहे हैं न शुक्ला जी, पच्चीस वर्ष पहले हमें भी शौक चढ़ा था विदेश में भेजकर बच्चों को बेहतर जिंदगी देने की। पर देख लीजिए, अब तो हमने भी जाना बंद कर दिया उनके पास क्योंकि इस 80 साल की उम्र में ना तो हमसे यह यात्रा सहन होती है और न आपकी भाभी जी को। नाती – पोते सब बड़े हो गए। अब बस वीडियो कॉल का सहारा है। “
बोसदादा एक साँस में बोल गए।
फिर कुछ रुककर बोले – “वैसे तो बाकी सब ठीक है पर तकलीफ़ तब होती है साहब जब इस बुढ़ापे में सहारे के नाम पर अपनी औलादें पास नहीं होतीं। वैसे सब तो ठीक चल रहा है पर जब बीमार पड़ते हैं और अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं तब पड़ोसियों पर निर्भर करना पड़ता है। “
“फिर आजकल देश में नौकरियों की कमी कहाँ है? सुना है आजकल आई.टी कंपनियाँ लाखों की सैलरी देती हैं। ” बोस दादा एक ही साँस में बोल गए।
“बेटों से कहिए इसी शहर में रहकर अगर कहीं बेहतर काम मिलता हो तो विदेश में जाकर सेकंड सिटीजन बंनकर, कलर डिस्क्रिमिनेशन सहकर, लोकल को मिलनेवाली सैलरी से कम तनख्वाह लेकर काम क्यों करें !” ये बातें ऐसे कही गई मानो अनुभवों की सच्ची पिटारी ही खोल दी गई हो।
“समझा सकते हैं तो समझाइए, वरना आगे उनकी मर्ज़ी। यह गलती हमने तो कर दी है वह गलती अब आप लोग ना करें तो बेहतर। वरना हमारे देश में भी वृद्धा आश्रमों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। अच्छा चलता हूँ। “
कुछ दिन बाद शुक्ला जी जॉगिंग करते दिखे।
“वाह! क्या बात है शुक्ला जी! अब सुबह -सुबह दौड़ते हुए ऩज़र आ रहे हैं ? तबीयत भी अच्छी लग रही है ! खुश भी लग रहे हैं! कोई खुश खुशखबरी है क्या ?”
जॉगिंग करते हुए शुक्ला जी रुक गए बोले-
“जी बोस दादा, आप से बात होने के बाद उस दिन घर जाने पर हमने अपने बच्चों से बातें की। कई उदाहरण दिए और सबसे बड़ा आपका उदाहरण दिया, क्योंकि बच्चे आपको बहुत समय से देख रहे हैं फिर अकेलेपन, बीमारी आदि की अवस्था में अगर बच्चे अपने पास ना हों तो फिर नि:संतान होना ही बेहतर है ना!”
मानो शुक्ला जी अब बोस दादा की सच्चाई से अवगत हो बोल रहे थे।
“इतना ही नहीं हमने दोनों लड़कों को काउंसलेर से भी मिलवाया और उन्होंने कई बातें बच्चों के सामने रखीं। “
“आज देश उन्नति के शिखर पर है। देश को अच्छे उच्च शिक्षित और कर्मठ लोगों की आवश्यकता है। इस ब्रेन ड्रेन से देश का बड़ा नुकसान होता है। बोसदादा ने अपने मत प्रकट किए।
सच कहा आपने दादा और फिर पता नहीं क्या सोच कर दोनों बच्चों ने जी आर ई की पढ़ाई छोड़ दी। आपको तो पता है जुड़वा बच्चे हमेशा एक जैसा ही निर्णय लेते हैं। हमारे बच्चों ने भी यही निर्णय लिया। “
“दोनों को कॉलेज में रहते हुए ही कंपनी सिलेक्शन से जो नौकरी मिली थी उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हाँ इस वक्त सैलरी कम है क्योंकि पहले उन्होंने मना कर दिया था। पर साल 2 साल में सब कुछ ठीक हो जाने का आसरा भी उन्होंने दिया है। “
“बच्चे पास में होंगे तो कम ज्यादा में गुज़ारा भी हो जाएगा। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया बोस दादा, उस दिन आपका मार्गदर्शन ना होता तो रिटायरमेंट के बाद भी मैं बच्चों को बाहर पढ़ाने के चक्कर में कहीं ना कहीं फिर नौकरी करता रहता। “
“अब मुझे उसकी चिंता नहीं। बच्चे समझ गए। पहले थोड़े से उदास हुए और उसके बाद प्रैक्टिकली सोचकर उन्होंने यही निर्णय लिया। आएँगे बच्चे आपसे मिलने। आपके मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। “
बोस दादा ने लाठी समेत अपना दाहिना हाथ ऊपर कर दिया फिर बायाँ हाथ ऊपर किया दोनों हाथ जोड़े ऊपर आकाश की ओर देखे और बोले – “लाख-लाख शुक्र है भगवान तेरा एक घर टूटने से तो बच गया। “
© सुश्री ऋता सिंह
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