डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम विचारणीय कथा – ‘पीढ़ियां‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 278 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ पीढ़ियां ☆
शंभुनाथ की सारी योजना मांजी और बाबूजी के हठ की वजह से अधर में लटकी है। लड़की वाले पढ़े-लिखे समझदार हैं। समझाने से मान गये। उतनी दूर तक लाव-लश्कर लेकर जाना सिर्फ पैसे का धुआं करना था। लड़की का फूफा इसी शहर में रहता है। उसी की मार्फत बात हुई थी। शंभुनाथ वरपक्ष को समझाने में सफल हो गये कि लड़की वाले चार छः रिश्तेदारों के साथ यहीं आ जाएं और सादगी से शादी संपन्न हो जाए। ज़्यादा तामझाम की ज़रूरत नहीं। दो-चार दिन में रिसेप्शन हो जाए, जिसमें दोनों पक्ष के लोग शामिल हो जाएं। इस तरह जो पैसा बचे, उसे लड़का-लड़की के खाते में जमा कर दिया जाए।
शंभुनाथ का तर्क था कि आजकल बारातों में तीन दिन बर्बाद करने की किसी को फुर्सत नहीं। आज आदमी घंटे घंटे के हिसाब से जीता है। इतना टाइम बर्बाद करना और कष्टदायक यात्रा में उन्हें ले जाना रिश्तेदारों की प्रति ज़ुल्म है।
लेकिन मां और बाबूजी सहमत नहीं होते। उनकी नज़र में शादी-ब्याह समाज को जोड़ने का बहाना है। रिश्ते नये होते हैं, उन पर बैठी धूल छंटती है, उन्हें नया जीवन मिलता है। जिन रिश्तेदारों से मिलना दुष्कर होता है, उनसे इसी बहाने भेंट हो जाती है। एक रिश्तेदार आता है तो उसके माध्यम से दस और रिश्तेदारों की कुशलता की खबर मिल जाती है। कई बार गलतफहमियां दूर करने का मौका भी मिल जाता है। पहले लोग लंबे पत्र लिखकर हाल-चाल दे देते थे। अब टेलीफोन की वजह से जानकारी का छोटा सा छोर ही हाथ में आता है। जितनी मिलती है उससे दस गुना ज़्यादा जानने की ललक रह जाती है। ज़्यादा बात करो तो खर्च की बात सामने आ जाती है।
शंभुनाथ का तर्क उल्टा है। उनके हिसाब से अब रिश्तों में कोई दम नहीं रहा। रिश्ते सिर्फ ढोये जाते हैं। अब किसी को किसी के पास दो मिनट बैठने की फुर्सत नहीं है। कोई दुनिया से उठ जाए तो रिश्तेदार रस्म-अदायगी के लिए दो-चार घंटे को आते हैं, फिर घूम कर अपनी दुनिया में गुम हो जाते हैं।
बाबूजी के गले के नीचे यह तर्क नहीं उतरता। उनका कहना है कि दुनिया के लोग अगर एक दूसरे से कटते जा रहे हैं तो ज़रूरी नहीं है कि हम उसी रंग में रंग जाएं। समझदार आदमियों का फर्ज़ है कि जितना बन सके दुनिया को बिगड़ने से रोकें।
उधर मांजी का तर्क विचित्र है। उनके कानों में चौबीस घंटे ढोलक की थाप और बैंड की धुनें घूमती हैं। शादी-ब्याह के मौके चार लोगों को जोड़ने और दिल का गुबार निकालने के मौके होते हैं। उनके हिसाब से सब रिश्तेदारों को चार-छ: दिन पहले इकट्ठा हो जाना चाहिए और चार-छः दिन बाद तक रुकना चाहिए। फिर जो बहुत नज़दीक के लोग हैं वे एकाध महीने रहकर सुख-दुख की बातें करें। पन्द्रह-बीस दिन तक घर में गीत गूंजें। युवा लड़के लड़कियों के जवान चेहरे देखने का सुख मिले और चिड़ियों की तरह सारे वक्त बच्चों की किलकारियां गूंजती रहें। युवाओं की बढ़ती लंबाई और वृद्धों के चेहरे की बढ़ती झुर्रियों का हिसाब- किताब हो।
मांजी की लिस्ट में कुछ ऐसी महिलाएं हैं जिनका आना हर उत्सव में अनिवार्य है, यद्यपि शंभुनाथ के हिसाब से वे गैरज़रूरी हैं। इनमें सबसे ऊपर कानपुर वाली बुआ हैं जिनसे रिश्ता निकट का नहीं है लेकिन जो नाचने और गाने में माहिर हैं। उनके आने से सारे वक्त उत्सव का माहौल बना रहता है। दूसरी सुल्तानपुर वाली चाची हैं जो भंडार संभालने में अपना सानी नहीं रखतीं। एक और मिर्जापुर वाली दीदी हैं जो पाक-कला में निपुण हैं।वे आ गयीं तो समझो खाने पीने की फिक्र ख़त्म। मांजी की नज़र में इन सबको बुलाये बिना काम नहीं चलेगा। शंभुनाथ का कहना है कि अब शहर में पैसा फेंकने पर मिनटों में हर काम होता है, इसलिए रिश्तेदारी ज़्यादा पसारने का कोई अर्थ नहीं है। रिश्तेदार दो दिन के काम के लिए आएगा तो बीस दिन टिका रहेगा।
बाबूजी की लिस्ट में भी कुछ नाम हैं। एक नाम चांद सिंह का है जो साफा बांधने में एक्सपर्ट है। अब बिलासपुर में नौकरी करता है लेकिन उसे नहीं बुलाएंगे तो बुरा मान जाएगा। अब तक परिवार की हर शादी में उसे ज़रूर बुलाया जाता रहा है। एक रामजीलाल हैं जो मेहमाननवाज़ी की कला में दक्ष हैं। टेढ़े से टेढ़े मेहमान को संभालना उनके लिए चुटकियों का काम है। शंभुनाथ बाबूजी के सुझावों को सुनकर बाल नोंचने लगते हैं।
मांजी के लिए नृत्य-गीत, शोर-शराबे, हंसी-ठहाकोंऔर और गहमा-गहमी के बिना शादी में रस नहीं आता। मेला न जुड़े तो शादी का मज़ा क्या? उनकी नज़र में शादी सिर्फ वर-वधू का निजी मामला नहीं है, वह एक सामाजिक कार्यक्रम है। वर-वधू के बहाने बहुत से लोगों को जुड़ने का अवसर मिलता है।
बाबूजी और मांजी बैठकर उन दिनों की याद करते हैं जब बारातें तीन-तीन दिन तक रूकती थीं और बारातों के आने से पूरे कस्बे में उत्सव का वातावरण बन जाता था। तब टेंट हाउस नहीं होते थे। दूसरे घरों से खाटें और बर्तन मांग लिये जाते थे और कस्बे के लोगों के सहयोग से सब काम निपट जाता था। अब दूसरे घरों से सामान मंगाने में हेठी मानी जाती है। अब लोग इस बात पर गर्व करने लगे हैं कि उन्हें किसी चीज़ के लिए दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता। बाबूजी कहते हैं कि समाज पर निर्भरता को पर-निर्भरता मान लेना सामाजिक विकृति का प्रमाण है।
मांजी और बाबूजी को समझाने में अपने को असफल पाकर शंभुनाथ ने अपने दोनों भाइयों को बुला लिया है।
पहले उन दोनों को समझा बुझाकर तैयार किया, फिर तीनों भाई तैयारी के साथ पिता- माता के सामने पेश हुए। नयी तालीम और नयी तहज़ीब के लोगों के सशक्त, चतुर तर्क हैं जिनके सामने मांजी, बाबूजी कमज़ोर पड़ते जाते हैं। वैसे भी मां-बाप सन्तान से पराजित होते ही हैं। अन्त में मांजी और बाबूजी चुप्पी साध गये। मौनं सम्मति लक्षणं।
यह तय हो गया कि शादी बिना ज़्यादा टीम-टाम के होगी। सूचना सबको दी जाएगी। जो आ सके, आ जाए। सारा कार्यक्रम एक-दो दिन का होगा। उससे ज़्यादा ठहरने की किसी को ज़रूरत नहीं होगी। शंभुनाथ का छोटा बेटा तरुण इस चर्चा से उत्साहित होकर सुझाव दे डालता है— ‘जिसको न बुलाना हो उसको देर से कार्ड भेजो। आजकल यह खूब चलता है।’ उसके पापा और दोनों चाचा उसकी इस दुनियादारी पर खुश और गर्वित हो जाते हैं।
बाबूजी और मांजी अब चुप हैं। निर्णय की डोर उनके हाथों से खिसक कर बेटों के हाथ में चली गयी है। इस नयी व्यवस्था में कानपुर वाली बुआ, सुल्तानपुर वाली चाची, मिर्जापुर वाली दीदी, चांद सिंह और रामजीलाल के लिए जगह नहीं है। इन सब की जगह यंत्र-मानवों ने ले ली है जो आते हैं, काम करते हैं और भुगतान लेकर ग़ायब हो जाते हैं।
बाबूजी चुप बैठे खिड़की से बाहर देखते हैं। उन्हें लगता है दुनिया तेज़ी से छोटी हो रही है। लगता है बहुत से चेहरे अब कभी देखने को नहीं मिलेंगे। उन्हें अचानक बेहद अकेलापन महसूस होने लगता है। माथे पर आये पसीने को पोंछते वे घबरा कर खड़े हो जाते हैं।
छोटा बेटा उन्हें अस्थिर देखकर पूछता है, ‘क्या हुआ बाबूजी? तबीयत खराब है क्या?’ बाबूजी संक्षिप्त उत्तर देते हैं, ‘हमारी तबीयत ठीक है बेटा, तुम अपनी फिक्र करो।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈