श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “झूठा भरम” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 99 ☆ झूठा भरम ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
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ख़ालिश देशीपन छूटा,
बस झूठा भरम लिए।।
शहर उनींदा
आलस ओढ़े,
आँखें मींज रहा।
धूप अल्गनी
पर टाँगे मन,
दिवस पसीज रहा।
सूरज का छप्पर टूटा,
संझा ने कदम छुए।
गंध सुरमयी
नहीं चूमती,
फूलों का मस्तक।
खारेपन से
हुई कसैली,
रिश्तों की पुस्तक।
अपनापन लगता जूठा,
लज्जा बेशरम जिए।
देहरी पर आ
पसर गया,
बाज़ारों का जादू।
सिमट गये हैं
अंकल अंटी,
में दादी दादू।
नानी का बचपन रूठा,
घाव सभी बेरहम हुए।
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
मो.07869193927,
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈