श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “जाएँ तो कहाँ?” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 100 ☆ जाएँ तो कहाँ? ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
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हम परिन्दों के लिए
डालते रहे दाना और पानी
और वे बिछाते रहे जाल
फँसाते रहे हैं सदा मछलियाँ
चुगते रहे हैं सबका दाना
बुन लिया गया है
उनके द्वारा ऐसा ताना-बाना
जिस तरह बुनती है मकड़ी
अपना जाल
और जब कोई कीट उलझता है
उस चक्रव्यूहनुमा जाल में
तब होता है शुरु शोषण
तब हम चाह कर भी नहीं निकल पाते
यह एक ऐसा व्यामोह है
जिसे ओढ़कर विवश हैं हम
और आने वाली पीढ़ियाँ
जीवन के इस संघर्ष में अपनी
जिजीविषा को लेकर जाएँ तो कहाँ?
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
मो.07869193927,
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈