डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘एक सामाजिक प्राणी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 285 ☆
☆ व्यंग्य ☆ एक सामाजिक प्राणी ☆
चमन भाई पूरे सामाजिक प्राणी हैं। समाज पर उन्हें भारी भरोसा है। असामाजिक , आत्मसीमित लोगों से उन्हें चिढ़ होती है। रामनाम की जगह वे बात बात में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जपते रहते हैं।
समाज की उपयोगिता पर चमन भाई घंटों भाषण दे सकते हैं। वे चीटियों का उदाहरण देते हैं जो मिलजुल कर पहाड़ उठा लेती हैं। वे भेड़िया-बालक जैसे आदम-समाज से बाहर पले प्राणियों की बात करते हैं जो आदमी होकर भी पशु बन गये ।आज के समाज में बढ़ती हिंसा और क्रूरता पर उनकी टिप्पणी है कि यह आदमी के समाज से कटते जाने और अपने में सिमटते जाने के कारण ही है।
चमन भाई इस हद तक सामाजिक हैं कि अपनी ज़्यादातर ज़रूरतों के लिए समाज पर ही निर्भर रहते हैं। उन्होंने न टेलीफोन का झंझट पाला, न फ्रिज का, न स्कूटर का। जब सब चीज़ें मुहल्ले में सहज उपलब्ध हैं तो फिर फ़िज़ूलखर्ची क्यों की जाए? तीन-चार साल पहले उन्होंने एक मोपेड खरीदी थी। वह रखे रखे जंग खा गयी क्योंकि चमन भाई उसे कभी चलाते ही नहीं थे। जब दूसरों की गाड़ियां दौड़ रही हों तो अपनी गाड़ी को दौड़ाने का क्या मतलब? दूसरों के स्कूटर की पिछली सीट खाली जाए तो वह भी एक तरह से फिज़ूलखर्ची हुई।
लैंडलाइन फोन के ज़माने में मुहल्ले के किसी भी घर में पहुंचकर चमन भाई टेलीफोन अपनी तरफ खींचकर डायल घुमाना शुरू कर देते। वार्ता कभी-कभी इतनी देर तक चलती कि गृहस्वामी का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगता। चमन भाई को इशारा किया जाता, ‘चमन भाई, टेलीफोन के रेट बढ़ गये हैं।’ जवाब में चमन भाई बढ़ती महंगाई पर आधे घंटे का भाषण दे मारते। सरकार को कोसते, कर्मचारियों-अधिकारियों को गाली देते और जनता पर पड़ने वाले बोझ की बात करते-करते दुखी हो जाते। लेकिन दुबारा ज़रूरत पड़ने पर फिर नि:संकोच उस घर में टेलीफोन करने हाज़िर हो जाते।
मुहल्ले में कई लोगों ने चमन भाई के आतंक से टेलीफोन ड्राइंग रूम से हटाकर भीतर छिपा दिया था। वे फोन करने पहुंचते तो सुनने को मिलता, ‘फोन खराब है, चमन भाई। माफ कीजिएगा।’ चमन भाई ‘अच्छा’ कह कर वापस आ जाते। गुस्सा नहीं होते। गुस्सा होने से सामाजिक संबंध टूटते हैं। गुस्सा सामाजिकता के लिए घातक होता है। आगे के लिए रास्ता बन्द होता है। इसलिए वे हमेशा परमहंस बने, गलती करने वालों को माफ करते रहते।
चमन भाई पिछले पंद्रह बीस साल से दूसरों के स्कूटर पर बैठकर दफ्तर जा रहे हैं। मुहल्ले में उनके दफ्तर के दो साथी रहते हैं। दोनों ने दुर्भाग्य से स्कूटर खरीद रखा है। चमन भाई बारी-बारी से उनको उपकृत करते रहते हैं। वे ठीक दस बजे उनमें से एक के घर पहुंच कर बाहर खड़े हो जाते हैं और स्कूटर स्टार्ट होने पर चुपचाप पिछली सीट पर बैठ जाते हैं। दो-चार बार उनके साथी चिढ़कर दस से पहले निकल गये, लेकिन चमन भाई ने बुरा नहीं माना। अगले दिन फिर वे दस बजे शान्त भाव से उसी ठिये पर पहुंच गये। उनके साथी भी आखिर कब तक भागते? इस तरह के मामूली झटके लगने के बाद फिर सब यथावत चलने लगता। चमन भाई धैर्य नहीं खोते। धीरज का फल मीठा होता है।
बाज़ार जाने के लिए चमन भाई दूसरा नुस्खा आज़माते हैं। चौराहे पर थैला लेकर खड़े हो जाते हैं और किसी भी भले दिखने वाले स्कूटर वाले को रोक लेते हैं। स्कूटर रुकते ही पीछे की सीट पर बैठ जाते हैं, कहते हैं, ‘थोड़ा बाजार तक छोड़ दीजिएगा।’ अगर वह कहता है कि उसे बीच में ही कहीं रुकना है तो वे जवाब देते हैं, ‘हां हां, वहीं छोड़ दीजिएगा। वहां से चला जाऊंगा।’ उस स्थान से चमन भाई किसी दूसरे स्कूटर वाले को ढूंढ़ते हैं। नहीं मिलता तो गाते-गुनगुनाते पैदल बाकी रास्ता तय कर लेते हैं, लेकिन विचलित नहीं होते। रिक्शे- विक्शे पर पैसा बर्बाद नहीं करते। जब पूरा समाज स्कूटरों पर दौड़ रहा हो तो एक व्यक्ति को अपनी चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? एक आदमी तो कहीं भी अंट सकता है।
चमन भाई ने कॉरपोरेशन का नल नहीं लगवाया। जिस दिन उनके पड़ोसी के घर नल लगा उसके दूसरे दिन उन्होंने एक लंबी सटक खरीद ली। नल खाली दिखते ही सटक लगाकर ज़रूरत के हिसाब से पानी भर लेते। देर तक नल खाली न मिले तो पड़ोसी का बर्तन हटाकर सटक लगा देते। टिप्पणी भी कर देते, ‘दो-चार बाल्टी पानी के लिए कितना इन्तजार करें?’ पड़ोसी की शराफत की बदौलत चमन भाई का काम चलता रहता है।
पहले उन्होंने टीवी भी नहीं खरीदा था। पड़ोसी की बुद्धि भ्रष्ट हुई तो उसने खरीद लिया। चमन भाई महीनों सपरिवार हर शाम उसके घर की शोभा बढ़ाते रहे। रामायण और महाभारत की सारी कड़ियां उसी के घर देखीं। टीवी बन्द होता तो कहते, ‘चालू करो भाई।’ चमन परिवार देर तक जमा रहता तो पड़ोसी कहता, ‘चमन भाई, अब तो नींद आ रही है।’ चमन भाई टीवी पर निगाहें जमाये हुए कहते, ‘ हां हां, आप सोइए। आराम से सोइए। हम बैठे हैं। जाते टाइम आपको बता देंगे।’
बीच में पड़ोसी के मेहमान आ जाते, तब भी चमन परिवार अपनी जगह बैठा टीवी देखता रहता। कभी मेहमान के कारण टीवी बन्द करना पड़ता तो चमन परिवार उनके जाने का इन्तज़ार करता जमा रहता। मेहमान के लिए जो चाय-पानी आता उसमें हिस्सा भी बंटा लेते। हार कर पड़ोसी ने शाम को घर में ताला ठोकना शुरू कर दिया। शाम को निकल जाते और अपने एक रिश्तेदार के यहां टीवी देख लेते। यह नुस्खा काम कर गया और चमन भाई ने मायूस होकर टीवी खरीद लिया। लेकिन पड़ोसी की इस असामाजिकता पर वे हफ्तों घूम घूम कर दुख प्रकट करते रहे। गुस्सा उन्हें फिर भी नहीं आया।
उनका पड़ोसी एफ एम रेडियो सुनने का शौकीन है। चमन भाई मुफ्त में उसका आनन्द लेते रहते हैं। जब कुछ अच्छे गाने शुरू होते हैं तो खिड़की से झांक कर कहते हैं, ‘आचारिया जी, जरा तेज कर दीजिए। लाउड। बहुत बढ़िया भजन है। मजा आ गया।’
चमन भाई पड़ोस से मुक्त भाव से चाय, दूध, शक्कर, आटा मांग लेते हैं। पड़ोसियों के फ्रिज में आइसक्रीम जमा लेते हैं। पड़ोसी उतने सामाजिक नहीं हैं, इसलिए वे चमन भाई से चीज़ें नहीं मांगते।
मुहल्ले में पांच छः कारें हैं। ज़रूरत पड़ने पर चमन भाई वहां भी दस्तक दे देते हैं। मिल गयी तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। चमन भाई पर कोई असर नहीं होता। वे यह मानते हैं कि ‘उनसे पहले वे मरे जिन मुख निकसत नाहिं।’ इस दोहे की पहली पंक्ति उनके खिलाफ जाती है, इसलिए वे बस दूसरी पंक्ति ही दुहराते हैं।
मुहल्ले में सुविधाएं बढ़ने के साथ चमन भाई के लिए समाज की उपयोगिता के नये आयाम खुलते हैं। कई झटके लगने के बाद भी समाज और आदमी पर उनकी आस्था में निरन्तर वृद्धि ही होती है। उनका विश्वास है कि समाज में भले लोग भी हैं और बुरे भी। इसलिए जो मिल जाए उसे ग्रहण कर लेना चाहिए और जो न मिले उसे त्याज्य समझ कर छोड़ देना चाहिए। जीवन में सुख का इससे बेहतर नुस्खा कोई नहीं है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈