श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना  ‘जरूरत और आदत  । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 35 – विशाखा की नज़र से

☆  जरूरत और आदत  ☆

 

हम हरे नही

फिर भी प्रकाशपुंज हमारी जरूरत

एक दूजे की आँखों की चमक

थी हमारी आदत …

 

हम प्यासे तो पानी हमारी जरूरत

पर प्यार में प्यासा बने रहना

थी हमारी आदत ….

 

हम चाहे उलझे , बिखरें , टूटे

हवाओं की सरसरी हमारी जरूरत

संग प्राणों का आयाम साधना

थी हमारी आदत …

 

जलता रहा लोभ , ईर्ष्या , जलन

का अग्निकुंड चहुँओर

जिसकी तपिश की नहीं हमें जरूरत

हम में अहम को भस्म करना

थी हमारी आदत …

 

जरूरतें व्योम सी

थक जाती हैं आँखें तक – तक

समेटे अपने पंखों को

घोसलें में बसर करना

थी हमारी आदत ….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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सतीश जायसवाल

मैँ अपने पर हैरान हूं कि इस स्तम्भ पर अब तक मेरी नजर क्यों नहीं पड़ी ? असल हैरानी शायद यह है कि विशाखा की कविताओं से मेरी मुलाकात इतनी देर से क्यों हुई।