श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना ‘धम्मम शरणम गच्छामि ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकते हैं । )
☆ धम्मम शरणम गच्छामि ☆
अगर यह कलयुग है तो
उसकी देहरी पर बैठी है मानवता
और यह है साँझ का वक्त
देहलीज के उस पार
धीरे – धीरे बढ़ रहा है अंधकार
हो न हो कलयुग का यही है मध्यकाल
अर्थ जिसका कि ,
अभी और गहराता जाएगा अंधकार
देहरी के इस ओर है धम्म का घर
जहां किशोरवय संततियां
एक – एक कक्ष में फैला रहीं है प्रकाश
अभी शेष है समय
चलो ! कलयुग को पीठ दिखा
हम लौट चले धर्म से धम्म की ओर
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र
बहुत ही सुन्दर अर्थपूर्ण रचना, बधाई