डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी ‘जोग’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 215 ☆
☆ कहानी – जोग ☆
रामरती बेहाल है। खाना-पीना, सोना सब हराम है। मजूरी के लिए जाती है तो धड़का लगा रहता है कि कहीं शिब्बू बाबाजी के साथ चला न जाए। दिन-रात मनाती है कि बाबाजी गाँव से टर जाएँ, लेकिन बाबाजी भला क्यों जाने वाले? उनका चमीटा आठ दस दिन से गाँव में ही गड़ा है। बस-अड्डे के पास पुरानी धर्मशाला में टिके हैं। सवेरे से गाँव के लोग सेवा के लिए पहुँचने लगते हैं। कोई दूध लेकर पहुँचता है तो कोई चाय लेकर। कोई सीधा-पिसान लिये चला आता है। किसी चीज़ की कमी नहीं। सवेरे नहा धोकर पूजा करने के बाद बाबाजी शीशा सामने रखकर घंटों शरीर पर चंदन तिलक छापते, चेहरे और शरीर को हर कोण से निहारते रहते हैं।
शाम को खासी भीड़ हो जाती है। इनमें स्त्रियों की संख्या ज़्यादा होती है। चरन छूकर आसिरबाद लेने के लिए चली आती हैं। कई स्त्रियाँ समस्याओं के समाधान के लिए आती हैं— बहू को संतान का योग है कि नहीं? बेटा परदेस से कब लौटेगा? बेटे के बाप का रोग कब ठीक होगा? समस्याओं का अन्त नहीं है। बाबाजी कहते हैं स्त्रियाँ बड़ी पुन्यात्मा, बड़ी धरम-करम वाली होती हैं। उन्हीं के पुन्न से धरती टिकी हुई है।
शाम को बाबाजी की चिलम खूब चलती है। सेवा करने वाले भी परसाद पा जाते हैं। इसीलिए बाबाजी की सेवा के लिए होड़ लगी रहती है। शाम को भजन-मंडलियाँ ढोलक-झाँझ लेकर बाबाजी के पास डट जाती हैं। देर रात तक भजन चलते हैं। बाबाजी मस्ती में झूमते रहते हैं। कभी मस्ती में खुद भी गाने लगते हैं। साथ साथ चिलम भी खिंचती रहती है।
शिब्बू भी दिन भर बाबाजी की सेवा में लगा रहता है। घर आता है तो बस रोटी खाने के लिए। रोटी खाने के बाद ऐसे भागता है जैसे गुड़ के लिए चींटे भागते हैं। कई बार दोपहर को आता ही नहीं। वहीं परसाद पाकर पड़ा रहता है। बाबाजी ने जाने क्या जादू कर दिया है। रात को बारह एक बजे घर लौटता है, चिलम के नशे में लस्त-पस्त। रामरती कुछ शिकायत करती है तो बाबाजी से सीखे हुए जुमले सुनाना शुरू कर देता है— ‘सिंसार के रिस्ते नाते झूठे हैं माता। यहाँ कोई किसी का नहीं। सब माया का परभाव है। गुरू से बढ़कर कोई नहीं। अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। पुन्न की जड़ पत्ताल।’
रामरती का हृदय सुलगता है, कहती है, ‘मैं दिन भर मजूरी करके तेरे पेट में अन्न डालती हूँ। तुझे बैठे-बैठे खाते सरम नहीं लगती?’
शिब्बू आँखें झपका कर सन्त की मुद्रा में कहता है, ‘अरे माता, जिसने करी सरम, उसके फूटे करम। इस सिंसार में किसी के करने से कुछ नईं होता।’
रामरती गुस्से में कहती है, ‘करने से तेरा नर भरता है। नईं करती तो भूखा मर जाता, अकरमी।’
शिब्बू ज्ञानी की नाईं मुस्करा कर कहता है, ‘अरे माता, जिसने चोंच दी है वोई दाना देगा। काहे की फिकर। गुरूजी तो कुछ नहीं करते, फिर भी आनन्द में रहते हैं।’
रामरती परेशान है क्योंकि गाँव में खबर गर्म है कि शिब्बू जोग लेगा, बाबाजी का चेला बन कर उन्हीं के साथ चला जाएगा। रामरती ने उसे बड़ी मुश्किल से, बड़ी उम्मीदों से पाला है। बाप दस साल पहले दारू पी पी कर मर गया था। शिब्बू से बड़ी एक बेटी है जिसकी शादी के लिए करजा काढ़ना पड़ा। अब रामरती खेतों में मजूरी करके घर चलाती है। शिब्बू का कोई भरोसा नहीं। एक दिन काम करता तो चार दिन आराम। बना- बनाया भोजन मिल जाता है, इसलिए बेफिक्र रहता है।
शिब्बू का बाप गाँव के बड़े लोगों की संगत में पड़ गया था। उसे इस बात का बड़ा गर्व था कि उसका उठना-बैठना हैसियत वालों में था। दरअसल वह भाँड़गीरी में उस्ताद था। लोगों की नकल और प्रहसन में वह माहिर था। इसीलिए वह बड़े लोगों के मनोरंजन का साधन बना रहता था। उसे चाटने-पोंछने के लिए कुछ न कुछ मिलता रहता था जिसमें वह बड़ा खुश रहता था। घर आता तो तर्जनी और अँगूठे से गोला बनाकर रामरती से कहता, ‘आज अंगरेजी पीने को मिली। मजा आ गया।’
धीरे-धीरे उसे लत लग गयी थी। दारू के लिए घर का सामान बेच देता। रामरती आँसू बहाती, लेकिन घर में सुनने वाला कोई नहीं था। फिर वह बीमार रहने लगा। खाना पीना कुछ नहीं पचता था। गाँव के अस्पताल के डॉक्टर को दिखाया तो उसने बताया, ‘पी पी पर इसका जिगर खराब हो गया है। शहर जाकर दिखाओ। यहाँ ठीक नहीं होगा।’
रामरती कहाँ दिखाये और कैसे दिखाये? आदमी उसकी आँखों के सामने घुलता घुलता चला गया।
शिब्बू के लिए रामरती ने बहुत कोशिश की कि वह पढ़-लिख जाए। उसने उसे गाँव के स्कूल में भर्ती भी करा दिया था, लेकिन उससे आगे उसके हाथ में कुछ नहीं था। वह खुद पढ़ी-लिखी थी नहीं, न उसके पास इतनी फुरसत थी कि शिब्बू की चौकीदारी करे। शिब्बू घर से बस्ता लेकर निकल जाता और फिर स्कूल बन्द होने के समय तक कुछ निठल्ले लड़कों के साथ तालाब के किनारे ‘गिप्पी’ खेलता रहता या आम तोड़ता रहता। उसका मन पढ़ने में नहीं लगता था।
रामरती को कुछ पता नहीं था। वह दाल-रोटी के जुगाड़ में ही उलझी रहती थी। एक दिन संयोग से उसने रास्ते में स्कूल के मास्टर जी को रोककर शिब्बू की प्रगति के बारे में पूछ लिया। जवाब मिला, ‘शिब्बू का तो कई महीने पहले गैरहाजिरी के कारण स्कूल से नाम कट गया है। अब वह स्कूल का छात्र नहीं है।’
सुनकर रामरती का दिल टूट गया। लड़के के भविष्य के उसके सारे सपने ध्वस्त हो गये। घर आकर उसने एक साँटी लेकर शिब्बू की खूब मरम्मत की, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसे जितना पीटा, उतना ही माँ का हृदय भी आहत हुआ।
शिब्बू अब गाँव में टुकड़खोरी में लग गया था। गाँव में लोग उसे छोटा-मोटा काम करने के लिए बुला लेते और बदले में उसे थोड़ा-बहुत पैसा या कुछ खाने को दे देते।
गाँव की स्त्रियाँ रामरती को सलाह देतीं, ‘लड़के का ब्याह कर दो। बहू आ जाएगी तो सुधर जाएगा। जिम्मेदार हो जाएगा।’
रामरती भुन कर जवाब देती, ‘नहीं सुधरेगा तो दो दो का पेट कौन भरेगा? फिर कुछ दिन बाद तीसरा भी आ जाएगा। मैं मजूरी- धतूरी करूँगी या बहू की चौकीदारी करूँगी? तब तुम कोई मदद करोगी क्या?’
सुझाव देने वाली भकुर कर आगे बढ़ जाती।
अब बाबाजी के आने से रामरती की जान और साँसत में पड़ गयी है। अगर सचमुच शिब्बू उनके साथ चला गया तो क्या होगा? उसके मन में कहीं न कहीं उम्मीद है कि वह सुधर जाएगा। बाबाजी ले गये तो उसकी उम्मीद बुझ जाएगी। फिर किसके लिए जीना और किसके लिए छाती मारना? सारे समय भगवान से मिन्नत करती रहती कि शिब्बू की मत ठीक बनी रहे।
एक दिन शिब्बू ने वही कह दिया जिसका उसे डर था। बोला, ‘बाई, मैंने बाबाजी से मंतर ले लिया है। उनका चेला बन गया हूँ। उन्हीं के साथ देस देस घूमूँगा। बड़ा आनन्द आएगा। गोबरधन भी जाएगा। वह भी चेला बन गया है।’
रामरती की जान सूख गयी। आँख से आँसू टपकने लगे। सारा आत्माभिमान गल गया। चिरौरी के स्वर में बोली, ‘बेटा, तू चला जाएगा तो मैं किसके सहारे जिऊँगी? अपनी महतारी को बुढ़ापे में बेसहारा छोड़ जाएगा? तू कहीं मत जा बेटा। मैं तुझे बैठे-बैठे खिलाऊँगी।’
शिब्बू ने सीखे हुए वाक्यों में जवाब दिया, ‘माता, कई जीवों के बच्चे दो चार दिन में ही माँ-बाप को छोड़ देते हैं। उनकी माता दुखी नहीं होती? सिंसार से मोह ममता नहीं रखना चाहिए।’
उधर गाँव में बाबाजी के साथ साथ शिब्बू की भी जयजयकार हो रही थी। लोग उसे देखकर हाथ जोड़ते। स्त्रियाँ उसके सामने पड़ जातीं तो बैठ कर आँचल का छोर धरती से छुआ कर माथे पर लगातीं। शिब्बू के पाँव ज़मीन पर नहीं थे। गर्व से उसकी आँखें मुँदी रहती थीं। लोग रामरती से कहते, ‘बड़ी भागवाली हो रामरती। लड़का खूब पुन्न कमाएगा। सब पिछले जनम के सतकरमों का फल है।’
रामरती के ससुर जीवित हैं। दूसरे बेटे के साथ रहते हैं। पढ़े-लिखे न होने के बावजूद सयाने, समझदार हैं। रामरती अपना दुखड़ा लेकर उनके पास गयी। वे बोले, ‘बेटा, क्या करें? कुएँ में भाँग पड़ी है। सब जैजैकार करने में लगे हैं। तुम्हारी बिथा समझने वाला कौन है? मैंने शिब्बू को समझाया था, लेकिन वह पगला है। समझता नहीं। जैजैकार में फूला फिरता है।’
अब रामरती को लगता था बाबाजी कभी भी चेलों को लेकर खिसक जाएँगे। उसे न नींद आती थी, न मजूरी में मन लगता था। सारे वक्त आँखें शिब्बू को ही तलाशती रहती थीं।
गाँव में पुलिस चौकी थी। दरोगा जी सारे वक्त दुखी बैठे रहते थे क्योंकि गाँव के ज़्यादातर लोग भुक्खड़ थे। आमदनी की संभावना न के बराबर थी। दरोगा जी की नज़र में यह गाँव मनहूस था। एक दोपहर रामरती उनके पास जा पहुँची। बोली, ‘दरोगा जी, धरमसाला में जो बाबाजी आये हैं वे मेरे बेटे को चेला बना कर ले जा रहे हैं। मैं बेसहारा हो जाऊँगी। आप उन्हें रोको,नहीं तो मैं किसी कुएँ में डूब मरूँगी।’
दरोगा जी ने उसके चेहरे को टटोला कि कितना सच बोल रही है, फिर बोले, ‘बाई, मैं क्या कर सकता हूँ? तुम्हारा बेटा बालिग है तो वह अपनी मर्जी से कहीं भी जा सकता है।’
रामरती बोली, ‘वह बालग नहीं है।’
दरोगा जी टालने के लिए बोले, ‘कुछ प्रमाण-सबूत लाओ तो देखेंगे।’
रामरती ने जवाब दिया, ‘ठीक है। मैं इस्कूल से लिखवा कर लाऊँगी।’
रामरती के जाने के बाद दरोगा जी के दिमाग में कीड़ा रेंगा। थोड़ी देर में मोटरसाइकिल लेकर धर्मशाला पहुँच गये। बाबाजी आराम कर रहे थे। दरोगा जी को देख कर उठ कर बैठ गये। दरोगा जी नमस्कार करके बोले, ‘कैसे हैं महाराज?’
बाबा जी दोनों हाथ उठाकर बोले, ‘आनन्द है। खूब आनन्द है। बड़ा प्रेमी गाँव है।’
दरोगा जी ने इधर-उधर नज़र घुमायी, फिर बोले, ‘गाँव से कुछ चेले बनाये क्या?’
बाबा जी का मुँह उतर गया, बोले, ‘अरे नहीं। हम इतनी आसानी से चेला-वेला नहीं बनाते। मन मिले का मेला, चित्त मिले का चेला।बाबा सबसे भला अकेला।’
दरोगा जी बोले, ‘किसी नाबालिग लड़के को चेला मत बनाइएगा। माँ-बाप रिपोर्ट कर देंगे तो आप मुश्किल में पड़ जाओगे।’
बाबाजी घबरा कर बोले, ‘अरे नहीं महाराज! अपने राम इस चक्कर से दूर रहते हैंं।’
दरोगा जी मोटरसाइकिल पर सवार होकर चलते बने, लेकिन बाबाजी के कान खड़े हो गये। चेलों से पूछताछ की तो पता चला रामरती दरोगा जी के पास गयी थी।
शाम को बाबाजी शिब्बू से बोले, ‘बच्चा, अभी तुमको हमारे साथ नहीं जाना है। हमने जो मंतर दिया है उसे साधना है, नहीं तो तुम्हारी साधना कच्ची रह जाएगी। साल भर बाद हम फिर आएँगे, तब तुम्हें अपने साथ ले जाएँगे।’
उसी रात बाबाजी गाँव को सोता और रोता छोड़ कर सारा सीधा-पिसान लेकर अंतर्ध्यान हो गये। रामरती को पता चला तो उसने राहत की साँस ली।
सवेरे शिब्बू ने अपना सारा गुस्सा माँ पर उतारा। दाँत पीसकर बोला, ‘तुम्हीं ने सब गड़बड़ किया। न तुम दरोगा के पास जातीं, न गुरूजी गाँव छोड़कर जाते। लेकिन इससे क्या होता है? क्या गाँव में और बाबा नहीं आएँगे? मैं किसी के भी साथ भाग जाऊँगा।’
रामरती शान्त स्वर में बोली, ‘अभी तो मुसीबत टर गयी, भैया। जब फिर आएगी तो देखेंगे।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈