श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी”। वास्तव में रचना में चर्चित ” हेल्पिंग हैंड्स” और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। यदि समाज अपना कर्तव्य नहीं निभाएगा तो लोगों का मानवता पर से विश्वास उठ जायेगा। इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 21 ☆
☆ लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी ☆
जबसे रमाशंकर जी ने अनलॉक -1 की खबर सुनी तभी से उन्होंने अपने सारे साठोत्तरीय दोस्तों को मैसेज कर दिया कि अब हम लोग आपस में मिल सकते हैं ; मॉर्निंग वॉक पर, गार्डन में व चाय की चुस्कियों के साथ चाय वाले के टपरे पर, जो बहुत दिनों से बंद था।
सभी दोस्तों की ओर से सहमति भी मिल गयी।
अब तो सुबह 5 बजे से ही सब लोग मास्क लगा कर, दूरी को मेंटेन करते हुए चल पड़े टहलने के लिए। अक्सर ही जब वे टहल कर थक जाते तो वहाँ पास में ही बने टपरे पर बैठकर चाय बिस्किट का आनंद लेते हुए नोक झोक करते थे। पर आज तो पूरा सूना सपाटा था। कहाँ तो लाइन से अंकुरित अनाज का ठेला, ताजे फलों के जूस का ठेला व और भी कई लोग आ जाते थे।
अब क्या करें यही प्रश्न भरी निगाहें एक दूसरे को देख रहीं थीं।
रमाशंकर जी ने कहा ” हम लोगों से चूक हो गयी, हमने सबके बारे में तो सोचा पर इधर ध्यान ही नहीं गया कि ये लोग बेचारे क्या करेंगे। हमारी सुबह को सुखद बनाने वाले परेशान होते रहे और हम लोग घरों में ही रहकर लॉक डाउन का आनंद लेते रहे।
हाँ, ये चूक तो हुयी, सभी ने एक स्वर से कहा।
अब चलो वहाँ बैठे गार्ड से पूछते हैं, ये लोग कहाँ मिलेंगे ?
सभी गार्डन की देखभाल करने वाले गार्ड के पास गए तो उसने बताया कि ये लोग अपने गाँव चले गए। जहाँ रहते थे,वहाँ मकान मालिक परेशान करते थे। खाना तो समाज सेवी संस्था से मिल रहा था किंतु रहने की दिक्कत के चलते क्या करते।
गार्डन भी तो कितना अस्त- व्यस्त लग रहा है, रमाशंकर जी ने कहा।
यही तो माली काका के साथ भी हुआ। उनको भी एक महीने का वेतन तो मिल गया था, उसके बाद का आधा ही मिला। वैसे तो कोई न कोई और भी काम कर लेते थे पर इस समय वो भी बंद, रहने की दिक्कत भी हो रही थी सो वे भी चले गए, गार्ड ने बताया।
क्या किया जाए, ये महामारी बिना लॉक डाउन जाती ही नहीं, इसलिए ये तो जरूरी था, रमाशंकर जी ने कहा।
आज देखो सब लोग घूमते दिख रहे हैं, बस वही लोग जो हमारे हेल्पिंग हैंड थे वे ही नहीं हैं क्योंकि जो मदद हम घरों में रहकर कर सकते थे उस ओर हमने ध्यान नहीं दिया, रमाशंकर जी ने कहा।
कोई बात नहीं साहब, अब भी अगर आप लोग चाहें तो सब ठीक हो सकता है। इनका पता लगाइए, ये जहाँ रहते थे उनके पास इन लोगों का मो. न. अवश्य होगा, इन्हें फिर से हिम्मत दिलाइये कि ये शहर इनका अपना है, हम लोगों से भूल हुई है, इन्हें इनका व्यवसाय स्थापित करने में सक्षम लोग यदि थोड़ी -थोड़ी भी मदद करें तो फिर से ये शहर चहकने – महकने लगेगा, गार्ड ने कहा।
तुमने तो हम सबकी आँखें खोल दी। तुम्हें सैल्यूट है। हम लोग मिलकर अवश्य ही अपना दायित्व निर्वाह करेंगे, सभी ने एक स्वर में कहा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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Very nice