डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक बेहतरीन व्यंग्य  ‘हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट’। यह  व्यंग्य विनम्रतापूर्वक  उन सब की  ओर से है जो दर्शनीय स्थल वाले शहरों में रहते हैं। अब इसे लिख दिया तो लिख दिया – ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आये। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 54 ☆

☆ व्यंग्य – हमारी आँख की कंकरी- भेड़ाघाट ☆

शुरू शुरू में भेड़ाघाट देखा तो तबियत बाग-बाग हो गयी। बड़ा रमणीक स्थान लगा। दो चार बार और देखा। फिर हुआ यह कि हमारी शादी हो गयी और हम जबलपुर में सद्गृहस्थ के रूप में स्थापित हो गये। फिर जबलपुर के बाहर से हमारे परिचित भेड़ाघाट देखने आने लगे और हमारे पास रुकने लगे। तब हमें महसूस हुआ कि वस्तुतः भेड़ाघाट उतना सुन्दर नहीं है जितना हम समझते थे। भेड़ाघाट के दर्शनार्थियों की संख्या बढ़ने के साथ उसका सौन्दर्य हमारी नज़र में निरन्तर गिरता रहा है। और अब तो यह हाल है कि कभी भेड़ाघाट जाते हैं तो ताज्जुब होता है कि इस ऊबड़खाबड़ जगह में लोगों को भला क्या सौन्दर्य नज़र आता है। मेरे खयाल से यह अनुभूति उन सभी लोगों को होती होगी जो दर्शनीय स्थानों में रहते हैं।

घर में जब कोई अतिथि आते हैं तो नाश्ते के बाद वे मुँह पोंछकर पूछते हैं, ‘हाँ भाई, जबलपुर में कौन कौन सी दर्शनीय जगहें हैं?’और मेरा कलेजा नीचे को सरक जाता है। यह भेड़ाघाट इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि अगर मैं दाँत निकालकर कहूँ, ‘अरे भाई, जबलपुर में दर्शनीय स्थल कहाँ?’ तो पक्का लबाड़िया साबित हो जाऊँगा।

और फिर मुहल्ले के कुछ महानुभाव मेरी  चलने भी कहाँ देते हैं। मुहल्ले के दुबे जी, पांडे जी या चौबे जी मेरे अतिथि को सड़क पर रोक कर परिचय प्राप्त करते हैं। फिर कहते हैं, ‘यहाँ तक आये हैं तो भेड़ाघाट ज़रूर देखिएगा, नहीं तो घर जाकर क्या बतलाइएगा?’ मेरा मन होता है कि पांडे जी से कहूँ कि महाराज,वे घर जाकर जो कुछ भी बतायें, लेकिन मैं उनके जाने के बाद आपको ज़रूर कुछ बताऊँगा। और मैंने कई बार ऐसे उत्साही लोगों की खबर भी ली है, लेकिन सवाल यह है कि संसार में किस किस मुँह पर ढक्कन लगाऊँ?

मैं कई लोगों को भेड़ाघाट के प्रभाव के विरुद्ध संघर्ष करते और हारते देखता हूँ। एक मित्र के घर पहुँचता हूँ तो वहाँ अतिथि देवता विराजमान हैं। स्वल्पाहार के बाद वे मित्र से पूछते हैं, ‘हाँ,तो आज दिन का क्या प्रोग्राम है?’ मित्र महोदय दाँत भींचकर उत्तर देते हैं, ‘आज तो भोजन के बाद छः घंटे निद्रा ली जाए। ‘ अतिथि देव सिर हिलाकर हँसते हैं, कहते हैं, ‘उड़ो मत। मैं भेड़ाघाट देखे बिना नहीं मानूँगा। ‘ मित्र भी हँसता है, लेकिन उसकी हँसी देखकर मुझे रोना आता है।

भेड़ाघाट ने जबलपुर वालों की खटिया वैसे ही खड़ी कर रखी है जैसे ताजमहल ने आगरा वालों की खाट खड़ी कर रखी है। नगर निगम वालों ने हमारी मुसीबत लंबी करने के लिए भेड़ाघाट में नौका-विहार की व्यवस्था कर दी है। उस दिन राय साहब रोने लगे। बोले, ‘भैया, कल मेहमानों को भेड़ाघाट ले गया था। डेढ़ हजार रुपया समझो नर्मदा जी में डूब गया। अब खजुराहो देखने की जिद कर रहे हैं। बहकाने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन सफलता की आशा कम है। ‘ उन्होंने ऐसी निश्वास छोड़ी कि मेरी कमीज़ थरथरा गयी।

अब पछताता हूँ कि कहाँ दर्शनीय स्थल वाली नगरी में फँस गया। मैं तो भारत सरकार से गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि भेड़ाघाट को कहीं दिल्ली के पास स्थानांतरित कर दिया जाए ताकि जबलपुर वालों का यह ‘तीरे नीमकश’ निकल जाए  और शहर को राहत का अहसास हो। हम सरकार बहादुर के बेहद मशकूर होंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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Shyam Khaparde

जानदार व्यंग