श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “धरती और साँस…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 28 ☆ धरती और साँस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
मुझमें फैला है
सारा आकाश
धरती हर साँस में बसी।
छूते हैं विषय मुझे
जब भी मन घिरता है
पानी की लहरें बन
तिनकों सा तिरता है
मुझमें पलता है
श्रम का अहसास
धड़कन से ज़िंदगी कसी।
बहुत कुछ कहा जाना
अब भी तो बाक़ी है
उजियारी भोर पहन
सूरज बेबाक़ी है
उजले पल-छिन में
जीवित मधुमास
होंठों पर थिरकती हँसी।
आँख में उदासी के
नित नए सपन जागें
स्वर्णिम इतिहास लिए
यादें बन मृग भागें
पोथियों पुराणों में
ठहरा विश्वास
साँसत में जान है फँसी।
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
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