डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख अन्याय सहना : भीषण अपराध। यह सत्य है कि अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है। किन्तु, अन्याय करने वाले के विरोध में कितने लोग खड़े हो पाते हैं, यह अलग प्रश्न है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 53 ☆
☆ अन्याय सहना : भीषण अपराध ☆
‘याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और ग़लत के साथ समझौता करना है।’ सुभाष चंद्र बोस की यह पंक्तियां हमें स्मरण कराती हैं, गीता में भगवान कृष्ण के मुख से नि:सृत वाणी का…’अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है’ –यह कथन ध्यातव्य है, अनुकरणीय है, जो मानव में ऊर्जा संचरित करता है; आत्मबल का अहसास दिलाता है; अंतर्मन में छिपी दैवीय शक्तियों के अवलोकन का संदेश देता है व स्वयं को पहचानने की प्रेरणा देता है। इतना ही नहीं, यह हमें अपने पूर्वजों का स्मरण कराता है तथा स्वर्णिम अतीत में झांकने का दम भरता है… हमें अपनी संस्कृति की ओर लौटने को प्रवृत्त करता है और विश्वास व अहसास दिलाता है कि ‘अपनी संस्कृति से विमुख होना, हमें पतन के गर्त में धकेल देता है।’
पाश्चात्य की ‘हैलो-हाय’ की मूल्यहीन संस्कृति हमें सुसंस्कारित नहीं कर रही, बल्कि पथ-भ्रष्ट कर रही है। हम मर्यादा की सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर, स्वयं को आधुनिक समझ रहे हैं। यह हमें अपने देश की मिट्टी व अपनों से बहुत दूर ले जा रही है … जिसके परिणाम-स्वरूप हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं और निपट स्वार्थी बन रहे हैं। हम केवल अपने व अपने परिवार के दायरे में सिमट कर रह गये हैं। दूसरे शब्दों में हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं, जो सामाजिक विषमता के रूप में हमारे समक्ष हैं।
आत्मकेंद्रितता का भयावह परिणाम, सामाजिक विश्रृंखलता के रूप में हमारे हृदय में वैमनस्य का भाव उत्पन्न करता है। अहं द्वन्द्व का जनक है व संघर्ष का प्रतिरूप है। वह मानव का सबसे बड़ा शत्रु है; जिसके भंवर में फंसा मानव चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकता। जैसे सुनामी की लहरों में डूबती- उतराती नौका में बैठे नाविक व अन्य यात्रियों की मन:स्थिति होती है, वे स्वयं को नियति के समक्ष असहाय, विवश व बेबस अनुभव कर, सृष्टि-नियंता से भीषण आपदा से रक्षा करने की ग़ुहार लगाते हैं; अनुनय-विनय करते हैं… उस विषम परिस्थिति में उनका अहं विगलित हो जाता है। परंतु इस मन: स्थिति में हर इंसान स्वयं को दयनीय दशा में पाता है और भविष्य में शुभ कर्म व सत्कर्म करने की ग़ुहार लगाता है। परंतु भंवर से उबरने के पश्चात् चंद लोग तो प्रायश्चित-स्वरूप जीवन को सृष्टि-नियंता की बख्शीश समझ, स्वयं तो शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त होते हैं; दूसरों को भी शुभ कर्म कर अच्छा व सज्जन बनने की प्रेरणा देते हैं। ऐसा व्यक्ति सत्य की अडिग राह पर चलने लगता है और अन्याय करने या गलत पक्ष के लोगों के साथ समझौता न करने का अटल निश्चय करता है। सो! उसका जीवन के प्रति सोच व दृष्टिकोण ही बदल जाता है। वह प्रकृति के कण- कण व प्राणी-मात्र में परमात्म-सत्ता का अनुभव करता है…सबसे प्रेम-व्यवहार करता है… करुणा की वर्षा करता है तथा समाज द्वारा बहिष्कृत दुर्बल, असहाय लोगों की सहायता कर सुक़ून पाता है। फलत: वह गलत के साथ कभी भी समझौता नहीं करता। यह सर्वविदित है कि यदि एक बार कदम गलत राह की ओर बढ़ जाते हैं, तो वह उस दल-दल मेंं धंसता चला जाता है… बुराइयों के जंजाल से कभी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, क्योंकि अंधी गलियों से लौट पाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है।
आत्मकेंद्रित व्यक्ति के हृदय में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ व अच्छे-बुरे का भेद नहीं रहता। वह उसी कार्य को अंजाम देता है, जिसमें केवल उसका हित होता है और वह जीवन का सबसे भयावह दौर होता है। ऐसा व्यक्ति मज़लूमों पर ज़ुल्म ढाता है; उनकी भावनाओं को रौंद कर; उनके जज़्बातों की परवाह न करते हुए सुख-शांति व आनन्द की प्राप्त करता है। उनके आंसू व चीत्कार भी उसके हृदय को द्रवित नहीं कर पाते। वह इंसान से जल्लाद बन जाता है और मासूमों पर ज़ुल्म ढाना उसका पेशा।
आइए! हम दृष्टिपात करते हैं, प्रति-पक्ष की मन: स्थिति पर, जो उसे नियति स्वीकार लेते हैं। उनके हृदय में यह भावना घर कर जाती है कि उन्हें अपने पूर्व-जन्म के कृत-कर्मों का फल मिल रहा है और भाग्य के लेखे-जोखे को कोई नहीं बदल सकता। काश! वे पहचान पाते…अंतर्निहित अलौकिक शक्तियों को… तो वे भी ज़ुल्म ढाने वाले का प्रतिरोध कर पाते और अन्याय सहने के पाप से बच पाते। इंसान की सहनशक्ति ही प्रति-पक्ष को और अधिक ज़ुल्म करने को प्रेरित करती है; न्यौता देती है। यदि वह साहस जुटा कर उस परिस्थिति का सामना करता है, तो विरोधियों के हौसले पस्त हो जाते हैं और वह उन्हें समान दृष्टि से देखने लगता है।
गलत व्यक्ति की अहमियत स्वीकार, स्वार्थ-वश उसके साथ समझौता करना अपराध है, पाप है, हेय है, त्याज्य है, निंदनीय है; जो आपको कभी भी सुक़ून नहीं प्रदान कर सकता। हितोपदेश व गीता का सारगर्भित संदेश इस तथ्य को उजागर करता है कि ‘न तो कोई किसी का मित्र है, न ही शत्रु, बल्कि व्यवहार से ही मित्र व शत्रु बनते हैं अर्थात् परमात्मा ने सबको समान रूप प्रदान किया है, परंतु व्यक्ति का व्यवहार ही मित्र व शत्रु का रूप प्रदान करते हैं। व्यवहार हमारी सोच व स्वार्थ-वृत्ति पर आश्रित होता है। स्वार्थ-परता शत्रुता के भाव की जननी है; जो जीवन में नकारात्मकता को जाग्रत करती है।’ परंतु सकारात्मक सोच मानव में मैत्री भाव को संचरित करती है, जिसमें प्राणी-मात्र के हित की भावना निहित रहती है। ऐसे लोगों के केवल मित्र होते हैं, शत्रु नहीं; वे सर्वहिताय की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं…सबके मंगल की कामना करते हैं। इसलिए नकारात्मक सोच के व्यक्ति की संगति करना कारग़र नहीं है। सो! वह आपको सदैव गलत दिशा की ओर प्रवृत्त करेगा, क्योंकि जो उसके पास होगा, उसकी धरोहर होगी और उसी संपदा को वह दूसरों को देगा।
मुझे स्मरण हो रही हैं, योगवशिष्ट की पंक्तियां, ‘जिस वस्तु का, जिस भाव से चिंतन किया जाता है, वह उसी प्रकार से अनुभव में आने लगती है’– उक्त भाव को पोषित करती हैं। हमारी सोच ही हमारे व्यक्तित्व की निर्धारक है, निर्माता है। इसका सशक्त उदाहरण है ‘रेकी’…यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूर बैठे अपनी भावनाएं, दूसरे व्यक्ति तक प्रेषित कर सकते हैं। यदि भावनाएं शुभ हैं, तो वहां के वातावरण में शांति, उल्लास व आनंद वर्षा होने लगेगी। यदि वहां ईर्ष्या, द्वेष व प्रतिशोध का भाव होगा; तो दु:ख, पीड़ा व क्लेश के भाव उन तक पहुंचेंगे। इस प्रकार हम अनुभव कर सकते हैं कि मानव की सोच ही उसके व्यवहार की जन्मदाता है, निर्माता है, पोषक है। इस संसार में जो भी आप दूसरे को देते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। तो क्यों ना अच्छा ही अच्छा किया जाए, ताकि सब का मंगल हो। सो! हम स्वयं अपने भाग्य-निर्माता हैं तथा हमें अपने कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक भुगतना पड़ता है।
सो! हमें अन्याय का सामना करते हुए अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और ग़लत के साथ समझौता कदापि नहीं करना चाहिए तथा अपनी आंतरिक शक्तियों को संचित कर, पूर्ण साहस व उत्साह से उन विषम परिस्थितियों का सामना करना चाहिए। जो व्यक्ति इन दैवीय गुणों को जीवन में संचित कर लेता है; आत्मसात् कर लेता है; पथ की बाधाओं व आपदाओं को रौंदता हुआ निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है और आकाश की बुलंदियों को भी छू सकता है। इसलिए मानव को अच्छे भावों-विचारों को धरोहर रूप में संजोकर रखना चाहिए तथा उसे आगामी पीढ़ी को सौंपने के पश्चात् ही अपने कर्त्तव्यों व दायित्वों की इतिश्री समझनी चाहिए।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878
सुंदर अभिव्यक्ति
मानव की सोच ही उसके व्यवहार की जन्मदाता है। बिलकुल सही कहा आपने अन्याय सहन करना अन्याय करने से भी अधिक ग़लत है। आपने बहुत सुंदर ढंग से अपनी बात को रखा है।