डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक समसामयिक विषय पर आधारित कहानी  ‘लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा ।  जहाँ एक ओर लॉक डाउन एक आवश्यकता है वहीँ दूसरी ओर उसके दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। इस विचारणीय कहानी  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 56 ☆

☆ कहानी – लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा
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पुरुषोत्तम जी उम्र के पचहत्तर पार कर गये। हाथ-पाँव ,आँख-कान अब भी दुरुस्त हैं। दिमाग़, याददाश्त भी ठीक-ठाक हैं। कोई बड़ा रोग नहीं है। आराम से स्कूटर चला लेते हैं, रात को भी दिक्कत नहीं होती।

लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद पुरुषोत्तम जी के पाँव बँध गये हैं। पैंसठ से ऊपर के बुज़ुर्गों के लिए घर से बाहर निकलना मना हो गया है। अब पुरुषोत्तम जी पर घरवालों की नज़र रहती है। चारदीवारी का गेट खुलने की आवाज़ होते ही कोई न कोई झाँकने आ जाता है। कपड़े बदलते हैं तो सवाल आ जाता है, ‘कहाँ जा रहे हैं?’
पुरुषोत्तम जी चिढ़ जाते हैं, कहते हैं, ‘कपड़े भी न बदलूँ क्या?’

दो बेटियाँ शहर से बाहर हैं। भाई भाभी के पास उनकी रोज़ हिदायत आती है—‘उन्हें कहीं जाने नहीं देना है। आप लोग तो हैं, फिर उन्हें बाहर निकलने की क्या ज़रूरत है?’ उनको सीधी हिदायत भी मिलती है—-‘प्लीज़, आप कहीं नहीं जाएंगे। भैया भाभी हैं न। वे आपके सब काम करेंगे। बिलकुल रिस्क नहीं लेना है। प्लीज़ स्टे एट होम। ‘
लाचार पुरुषोत्तम जी गेट के बाहर नहीं जाते। लॉकडाउन के कारण कोई आता भी नहीं। सब तरफ सन्नाटा पसरा रहता है। घरों के सामने कारें खड़ी दिखायी देती हैं, लेकिन चलती हुई कम दिखायी पड़ती हैं। पहले शाम को सामने की सड़क पर बच्चों की भागदौड़ शुरू हो जाती थी, अब वे भी घरों में कैद हो गये हैं। पुरुषोत्तम जी चिन्तित हो जाते हैं कि कहीं यह परिवर्तन स्थायी न हो जाए।

वक्त काटने के लिए पुरुषोत्तम जी घर में ही मंडराते रहते हैं। पुरानी चिट्ठियाँ, पुराने एलबम उलटते पलटते रहते हैं। कभी अपनी छोटी सी लाइब्रेरी से कोई किताब निकाल लेते हैं। पुराने संगीत का शौक है। सबेरे दूसरे लोगों के उठने से पहले सुन लेते हैं। लता मंगेशकर, बेगम अख्तर, तलत महमूद प्रिय हैं। लेकिन बाहर निकलने के लिए मन छटपटाता है।

एक शाम घरवालों को बताये बिना टहलने निकल गये थे। बहुत अच्छा लगा था। तभी एक पुलिस की गाड़ी बगल में आकर रुक गयी थी। उसमें बैठा अफसर सिर निकालकर बोला, ‘क्यों, घर के लिए फालतू हो गये हो क्या दादा? भगवान ने जितने दिन दिये हैं उतने दिन जी लो। जाने की बहुत जल्दी है क्या?’ पुरुषोत्तम जी कुछ नहीं बोले, लेकिन उस दिन के बाद गेट से बाहर नहीं निकले।

सामने वाले घर के बुज़ुर्ग शर्मा जी कभी कभी नाक मुँह पर ढक्कन लगाये दिख जाते हैं। मास्क में से ही हाथ उठाकर कहते हैं, ‘कहीं निकलना नहीं है, पुरुषोत्तम जी। हम स्पेशल कैटेगरी वाले हैं। हैंडिल विथ केयर वाले। ‘

उस दिन पुरुषोत्तम जी मन बहलाने के लिए गेट पर बाँहें धरे खड़े थे। उन्होंने देखा कि इस बीच बहू तीन बार दरवाज़े से झाँककर गयी। समझ गये कि उन पर नज़र रखी जा रही है। दिमाग़ गरम हो गया। भीतर आकर गुस्से में बोले, ‘मैं बच्चा नहीं हूँ। मुझे पता है कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है। आप लोग क्यों बेमतलब परेशान होते हैं?’

बहू ‘ऐसा कुछ नहीं है, पापाजी, मैं तो सब्ज़ीवाले को देख रही थी’, कह कर दूसरे कमरे में चली गयी। लेकिन पुरुषोत्तम जी का दिमाग गरम ही बना रहा। एक तो घर में बँध कर रह गये हैं, दूसरे यह चौकीदारी।

बैठे बैठे बेचैनी होने लगी। बहू को आवाज़ देकर एक गिलास पानी लाने को कहा। बहू के आने तक उनकी गर्दन कंधे पर लटक गयी थी। बहू ने घबराकर पति को पुकारा और पति ने अपने दोस्त डॉक्टर को फोन लगाया। डॉक्टर ने आकर जाँच-पड़ताल की और बता दिया कि पुरुषोत्तम जी दुनिया को छोड़कर निकल गये।

तत्काल बेटियों को सूचित किया गया। उधर रोना-पीटना मच गया। लॉकडाउन में निकल पाना संभव नहीं। कहा कि बीच बीच में मोबाइल पर दिखाते रहें। झटपट विदाई की तैयारी हुई। बहुत नज़दीक के रिश्तेदार और दोस्त ही आये। बाकी को सूचित तो किया लेकिन समझा दिया कि सरकारी निर्देशों के अनुसार संख्या बीस से ज़्यादा नहीं होना चाहिए।

तीन चार घंटे में सब तैयारी हो गयी और पुरुषोत्तम जी अन्ततः घर से बाहर हो गये। जब उनकी सवारी बाहर निकली तो अपने गेट पर खड़े शर्मा जी नमस्कार करके बोले, ‘रोक तो बहुत लगी, लेकिन लॉकडाउन तोड़ कर निकल ही गये पुरुषोत्तम जी।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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Prabha Sonawane

बहुत सुन्दर कथा है

Shyam Khaparde

वाह, मजेदार