श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆
☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆
एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।
अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।
महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।
मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।
शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।
एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।
इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?
(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)
आज सुनें और पढ़ें किसी बुजुर्ग का मौन।
?????
© संजय भारद्वाज , पुणे
विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ। संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!
अत्यंत सुंदर व गूढ़ रचना!
काश, मनुष्य वृद्धावस्था के मौन की पीड़ा समय रहते ही समझ पाता, जोकि उसके लिए भी अवश्यम्भावी है!
?????
धन्यवाद रघुवंशी जी।
Very knowledgable
धन्यवाद महेंद्र जी।
सरल समझ आती है आप की कविता ऐसे ही निरंतर उचाव चलता रहे यही कामना
धन्यवाद बसंत जी।
पड़ाव के बाद का मौन वर्तमान परिप्रेक्ष्य के सामयिक एवं प्रासांगिक विषय को उकेरता महत्वपूर्ण आलेख! लेखक संजय भारद्वाज जी को बधाई एवं अभिनंदन। संजय उवाच की प्रस्तुति हेतु हेमंत जी का आभार।
धन्यवाद वीनु जी।
ये दोनों स्थितियाँ संभवत: हरेक के जीवन में आती है , विशेष कर वृद्धावस्था की मौनता ! मनुष्य स्वयं को लेकर इतना व्यस्त रहता है कि उसे शायद अपने ही घर के बुजुर्ग की मौनता की ख़बर नहीं ।सुंदर अभिव्यक्ति सुंदर तुलनात्मक अध्ययन।वाह!!
धन्यवाद ऋता जी।
मैंने कही पढ़ा था कि ‘ If my silence doesn’t speak my words won’t make sense ‘ किसी व्यक्ति का मौन समझनेके लिए उस व्यक्ति को जानना और समझना बहुत ज़रूरी होता है,और एेसे करने के लिए आस्था और ज़िम्मेदारी भी ज़रूरी है। आज कल के व्यस्त जीवन में ,संजय जी कहते है उस तरह नज़र अंदाज करना लेगोंको ज़्यादा सहूलियत दे लगता है। प्रौढ़ मौन व्रत अपनाते है क्योंकि उनको सुनने के लिए किसीको पास वक़्त नही होता लेकिन उनके क़रीबी रिश्तेदार सिर्फ उनके किये गए त्याग और प्यार के कुछ क्षण याद रखेंगे तो वह संजय जी कहते… Read more »