`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक समसामयिक, सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ।)
☆ किसलय की कलम से # 8 ☆
☆ चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ☆
वर्ष के जिस कालखंड में श्री हरि विष्णु शयन करते हैं, सनातन मतानुसार उस अवधि को चतुर्मास, चौमासा, पावस अथवा सामान्य रूप से वर्षाऋतु कहते है। हिन्दी पंचांग के अनुसार देवशयनी एकादशी से हरि प्रबोधिनी एकादशी तक के समय को चतुर्मास कहते हैं। मुख्यरूप से वर्ष में शीत, गर्मी व वर्षा नामक तीन ऋतुएँ होती हैं। प्रत्येक ऋतु चार-चार माह की होती है, उनमें से यह चार मास की वर्षाऋतु विभिन्न विशेषताओं के कारण सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ग्रीष्म की तपन के पश्चात वर्षा का आगमन धरा को तृप्त करता है। प्रकृति को पेड़-पौधों व हरियाली से समृद्ध करता है। कृषकों के लिए वर्षा सबसे महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि संपूर्ण कृषि होने वाली वर्षा पर ही निर्भर करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा का प्रभाव पूरी शीत ऋतु व गर्मी में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करती है।
ऋतु परिवर्तन का प्रभाव मनुष्यों के शरीर व मन-मस्तिष्क पर भी पड़ता है। हमारे पूर्वजों एवं ऋषि-मुनियों ने गहन साधना, विशद चिंतन-मनन व अध्ययन के उपरांत ऋतुसंगत पर्व, व्रत व उपवासों को नियत किया है, जिससे हमारे व प्रकृति के मध्य स्वस्थ सामंजस्य बना रहे। हम ऋतु के अनुरूप स्वयं को ढाल सकें और हमें किसी भी तरह का कष्ट अथवा बीमारियों का सामना न करना पड़े। वर्षाकाल अथवा पावस एक ऐसा कालखंड होता है जब भारतीय जनमानस खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों का वर्ष के अन्य दिनों की अपेक्षा घर से निकलना बहुत कम हो जाता है। कृषि कार्य जहाँ बिल्कुल कम होते हैं, वहीं वर्षा के कारण घर के बाहर काम करना अथवा व्यवसाय भी कम हो जाता है।
ठंडे मौसम व वर्षा के कारण मनुष्यों की पाचन शक्ति (मेटाबॉलिज्म) तो कम होती ही है, पाचन में सहायक एंजाइम की कमी भी होने लगती है। डाइसटेस व पेप्सिन 37 सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर ही ज्यादा सक्रिय रहते हैं। हमारे यहाँ मौसम के विशद अध्ययन के पश्चात ही पर्व व पथ्य निर्धारित किए गए हैं। इनका अनुकरण करने से हम अनेक बीमारियों से बचने के साथ-साथ स्वयं को स्वस्थ भी रख सकते हैं। पर्वों तथा व्रतों में उपवास रखने तथा उपवास के दौरान ऋतु अनुसार निर्धारित पथ्य से हम हानिकारक खाद्य पदार्थों के सेवन से बच सकते हैं क्योंकि हमारे पूर्व-प्रबुद्धों द्वारा ऐसी भोजन सामग्री का ही चयन किया गया है जो हमारे शरीर की परिस्थितियों के अनुरूप जरूरतें पूरी करने में सक्षम होती हैं।
पावस में हरियाली तीज, नागपंचमी, हरतालिका, प्रकाश उत्सव, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, संतान सप्तमी, कृष्ण जन्माष्टमी, श्रावण सोमवार जैसे पर्वों पर अलग-अलग दिनचर्या, भोजन वह फलाहार का विधान है। शहद, पपीता, गुड़, मसाले (सोंठ, कालीमिर्च, दालचीनी, तेजपत्र, जीरा, पिप्पली, धनियाँ, अजवाइन, राई, हींग), पंचगव्य, कंद, मेवे आदि के यथा निर्देशित उपयोग से हमारे शारीरिक विकार शरीर से बाहर होते हैं और पाचन शक्ति बढ़ती है। इनसे हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति में भी वृद्धि होती है। इस काल में कम भोजन करने व कभी-कभी उपवास रखने पर शरीर में ऑटोफागी नाम की सफाई प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जिससे एक ओर शरीर की अनावश्यक कोशिकाएँ शरीर से बाहर होने लगती हैं वहीं दूसरी ओर नवीन कोशिकाओं के निर्माण में भी गति आती है। उपवास से शरीर के फैटी टिशुओं को विखंडित करने वाले हारमोन्स भी निकलते हैं, जिससे शरीर की चर्बी कम होती है अर्थात वजन कम होता है।
यह तो हम सभी जानते हैं कि व्रत उपवास व श्रम से पाचनशक्ति वर्धक जठराग्नि (डाइजेस्टिव फायर) भी बढ़ती है। हमारे पूर्वजों, वैद्यों, मौसम विज्ञानियों ने ऐसे अनेक प्रामाणिक ग्रंथ, सूक्तियाँ, दोहे, कविताएँ आदि लिखी हैं जो ऋतु परिवर्तन होने पर हमारे स्वास्थ्य व पथ्य हेतु अत्यंत उपयोगी हैं। हम घाघ कवि को ही ले लें, उन्होंने लिखा है:-
चैते गुड़, बैसाखे तेल,
जेठे पंथ, असाढ़े बेल।
सावन साग, भादों दही,
क्वाँर करेला, कातिक मही।
अगहन जीरा, पूसे धना,
माघे मिश्री, फागुन चना।
ई बारह जो देय बचाय
वहि घर वैद्य, कबौं न जाए
वर्षाऋतु में अधिकतर हरी एवं पत्तेदार सब्जियों में कीट व रोग बढ़ जाते हैं। कीटों की प्रजनन गति तेज हो जाती है। ये कीट प्रमुखतः पत्तियों पर ही ज्यादा पनपते हैं। कीट सब्जियों के अंदर जाकर उन्हें दूषित तथा हानिकारक भी बनाते हैं। कुछ सब्जियों में विषैलापन बढ़ जाता है। वर्षाऋतु में खासतौर पर गंदा पानी, कीचड़, सूर्य प्रकाश की कमी, सीलन, विभिन्न कीट पतंगे, साँप, बिच्छू भी हमें तरह-तरह से हानि पहुँचाते हैं। विषैले तथा गंदगी फैलाने वाले जीव-जन्तु भी घरों में व खाद्य पदार्थों में बढ़ने लगते हैं। जीवाणु व विषाणु भी श्वास तथा भोजन के माध्यम से हमें बीमार बनाते हैं। मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, हैज़ा आदि मच्छरों व मक्खियों की वृद्धि का ही दुष्परिणाम होता है। चर्मरोग, अतिसार (डायरिया), पीलिया जैसे रोग भी दूषित पानी व दूषित भोजन से होते हैं। इस अवधि में घर तथा बाहर दोनों जगहों पर आवागमन के दौरान विशेष सावधानी व सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए। वर्षा ऋतु में गंदे कुएँ, तालाब, पोखर, नहरों, नदियों तथा इनके समीप कम गहरे हैंडपंप आदि का पानी पीने से बचना चाहिए। साथ ही बीमार व्यक्ति का मल-मूत्र उल्टी आदि खुले स्थानों अथवा इन जलाशयों में नहीं डालना चाहिए। भोजन सदैव ताजा, गर्म, स्वच्छ एवं पौष्टिक ही खाना चाहिए। इन दिनों हमें फिल्टर, आर.ओ. अथवा आवश्यक मिनरल युक्त जल ही पीना चाहिए। पहले से कटे फल-फूल नहीं खाना चाहिए। बिना हाथ धोए खाना नहीं खाना चाहिए। बच्चों को बोतल से दूध पिलाने व बासी भोजन खाने से बचना भी वर्षाकाल की बीमारियों से सावधानी बरतना ही कहलाएगा।
इस तरह यदि आप चतुर्मास में स्वयं को स्वस्थ, सुखी व प्रसन्न रखना चाहते हैं तब आपको चौमासे के पर्वों पर उपवास रखना होगा। पर्वों पर सुझाया गया फलाहार अथवा भोजन संतुलित मात्रा में करना होगा। खानपान के साथ-साथ घर की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान देना होगा। घर में अथवा घर के बाहर प्रदूषण, सीलन, भीगने व घर को शुष्क रखने का प्रयास करना भी जरूरी है। वक्त के साथ हमारी जीवन शैली में व्यापक परिवर्तन आए हैं, लेकिन नए-नए किस्म के प्रदूषण व संक्रमण भी बढ़े हैं। इसलिए हमें स्वविवेक व वैज्ञानिक तथ्यपरक दिशा-निर्देशों के अनुरूप सुरक्षा व सावधानी अपनानी होगी, तभी हम चतुर्मास में नीरोग तथा प्रसन्न रह पायेंगे।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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