डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख संदेह और विश्वास। संदेह अथवा शक का कोई इलाज़ नहीं है और विश्वास हमें जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 55 ☆
☆ संदेह और विश्वास ☆
संदेह मुसीबत के पहाड़ों का निर्माण करता है और विश्वास पहाड़ों से भी रास्तों का निर्माण करता है। मन का संकल्प व शरीर का पराक्रम, यदि किसी काम में पूरी तरह लगा दिया जाए, तो सफलता निश्चित रूप से प्राप्त होकर रहेगी। सो! मंज़िल तक पहुंचने के लिए दृढ़-निश्चय, शारीरिक साहस व तन्मयता की आवश्यकता होती है। वैसे भी कबीर दास जी की यह पंक्तियां ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ‘ बहुत सार्थक हैं। काव्यशास्त्र में भी तीन शक्तियां स्वीकारी जाती हैं…प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। प्रतिभा जन्मजात होती है, व्युत्पत्ति का संबंध शास्त्रों के अध्ययन से है और सिद्धहस्तता प्राप्ति के लिए बार-बार उस कार्य को करना अभ्यास के अंतर्गत आता है। तीनों का परिणाम चामत्कारिक होता है। सो! आवश्यकता है–मन को एकाग्र कर अपनी शारीरिक शक्तियों को संचित कर, उसमें लिप्त करने की। इस स्थिति में कोई भी आपदा या बाधा आपके पथ की अवरोधक नहीं बन सकती। हां! संदेह अवश्य मुसीबतों के पर्वतों का निर्माण करता है अर्थात् मन को संशय की स्थिति में लाकर छोड़ देता है; जिसके जंजाल से निकलने की कोई राह नहीं दिखाई पड़ती। वास्तव मेंं यह संशय, भूल-भुलैया अथवा अनिर्णय की स्थिति होती है, जिसमें मानव की मानसिक शक्ति कुंद हो जाती है। इसलिए शक़ को दोस्ती का शत्रु स्वीकारा गया है। यह गुप्त ढंग से ह्रदय में दस्तक देती है और अपना आशियां बना कर बैठ जाती है। उस स्थिति में उससे मुक्ति पाने का कोई मार्ग नज़र नहीं आता।
दूसरी ओर विश्वास पहाड़ों में से भी रास्तों का निर्माण करता है। यहां हमारा संबंध आत्मविश्वास से है; जिसमें हर आपदा का सामना करने की क्षमता होती है, क्योंकि कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं होती, जिसका समाधान न हो। चित्त की एकाग्रता इसकी प्राथमिक शर्त है और उस स्थिति में मन में संशय का प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। यदि किसी कारण संदेह हृदय में प्रवेश कर जाता है, कि ‘यदि ऐसा होता; तो वैसा होता… कहीं ऐसा-वैसा न हो जाए ‘ आदि अनेक आशंकाएं मन में अकारण जन्म लेती हैं और हमें पथ-विचलित करती हैं। सो! संदेह पर विश्वास द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है; जिसके लिए आवश्यकता है– चित्त की एकाग्रता व शारीरिक शक्तियों के एकाग्रता के अभ्यास की और यही अपनी मंज़िल तक पहुंचने का सबसे कारग़र उपाय व सर्वश्रेष्ठ साधन है। इसी संदर्भ में दिनकर जी का यह कथन बहुत सार्थक है–’ज़िंदगी के असली मज़े उनके लिए नहीं हैं, जो फूलों की छांह के नीचे खेलते व सोते हैं, बल्कि फूलों की छांह के नीचे यदि जीवन का स्वाद छिपा है, तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं, जिनका कंठ सूखा व ओंठ फटे और सारा शरीर पसीने से तर-ब-तर है। पानी में अमृत तत्व है; उसे वही जानता है, जो धूप में चलते-चलते सूख चुका है।’ इस उक्ति में शारीरिक पराक्रम की महत्ता को दर्शाते हुए कहा गया है कि यदि मानव परिश्रम करता है, तो पर्वतों में भी रास्ता बनाना भी कठिन नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है दाना मांझी का प्रसंग, जो अपनी पत्नी के शव को कंधे पर लाद-कर पर्वतों के ऊबड़- खाबड़ रास्तों से अपने गांव तक ले गया। परंतु उसने दुर्गम पथ की कठिनाइयों को अनुभव करते हुए मीलों लंबी सड़क बनाकर एक मुक़ाम हासिल किया, जिसमें उसका स्वार्थ निहित नहीं था, बल्कि दूसरों के सुख-सुविधा के लिए पर्वतों को काट कर सपाट रास्ते का निर्माण करने की प्रबल इच्छा शक्ति थी। परंतु इस कार्य को सम्पन्न करने में उसे लंबे समय तक जूझना पड़ा।
सो! दिनकर जी भी श्रमिकों के साहस को सराहते हुए श्रम के महत्व को प्रतिपादित करते हैं कि जीवन के असली मज़े उन लोगों के लिए हैं, न कि उनके लिए जो फूलों की चाह में अपना जीवन सुख-पूर्वक गुज़ारते हैं। मानव को परिश्रम करने के पश्चात् जो सुक़ून की प्राप्ति होती है, वह अलौकिक आनंद प्रदान करती है।
‘बहुत आसान है/ ज़मीन पर मकां बना लेना/ दिल में जगह बनाने में/ उम्र गुज़र जाती है।’ सो! धरा पर बड़े-बड़े महल बना लेना तो आसान है, परंतु किसी के दिल में जगह बनाने में तमाम उम्र गुज़र जाती है। यह महल, चौबारे, मखमली बिस्तर, सुख-सुविधा के विविध उपादान दिल को सुक़ून प्रदान नहीं करते। मखमली बिस्तर पर लोगों को अक्सर करवटें बदलते देखा है और बड़े-बड़े आलीशान बंगलों में रहने वालों से हृदय से सुक़ून नदारद रहता है। एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का अहसास उनकी ज़िंदगी की हक़ीक़त बयां करने के लिए काफी है। वे नदी के द्वीप की भांति, अपने-अपने दायरे में कैद रहते हैं, जिसका मुख्य कारण है–संवादहीनता से उपजी संवेदनशून्यता और मिथ्या अहं की भावना, जो हमें एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देती। इसका परिणाम हम तलाक़ की दिन-प्रतिदिन बढ़ती संख्या के रूप में देख सकते हैं। सिंगल पेरेंट के साथ एकांत की त्रासदी झेलते बच्चों को देख हृदय उद्वेलित हो उठता है। सो! इन असामान्य परिस्थितियों में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव है?
‘पहाड़ियों की तरह/खामोश हैं/ आज के संबंध/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ भी नहीं आती’–ऐसे परिवारों की मन:स्थिति को उजागर करता है, जहां स्नेह-सौहार्द के स्थान पर अविश्वास, संशय व संदेह ने अपना आशियां बना रखा है। आजकल अति-व्यस्तता के कारण अंतहीन मौन अथवा गहन सन्नाटा छाया रहता है। मुझे स्मरण हो रही हैं इरफ़ान राही सैदपुरी की यह पंक्तियां, ‘हमारी बात सुनने की/ फुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ उजागर करता है आज के समाज की त्रासदी को, जहां हर अहंनिष्ठ इंसान समयाभाव की बात कहता है; दिखावा-मात्र है। वास्तव में हम जिससे स्नेह करते हैं, जिस कार्य को करने की हमारे हृदय में तमन्ना होती है; उसके लिए हमारे पास समयाभाव नहीं होता। सो! जिसने जहान में दूसरों की खुशी में खुशी देखने का हुनर सीख लिया…वह इंसान कभी भी दु:खी नहीं हो सकता। दु:ख का मूल कारण है, इच्छाओं की पूर्ति न होना। अतृप्त इच्छाओं के कारण क्रोध बढ़ता है और इच्छाएं पूरी होने पर लोभ बढ़ता है। इसलिए धैर्यपूर्वक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। राह बड़ी सीधी है और मोड़ तो मन के हैं। अहं के कारण मन में ऊहापोह की स्थिति बनी रहती है और वह आजीवन इच्छाओं के मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाता और उनकी पूर्ति-हित गलत राहों पर चल निकलता है, जिसका परिणाम भयंकर होता है। इसका दोष भी वह सृष्टि-नियंता के माथे मढ़ता है। ‘न जाने वह कैसे मुकद्दर की किताब लिख देता है/ सांसें गिनती की ख्वाहिशें बे-हिसाब लिख देता है।’ इसके लिए दोषी हम खुद हैं, क्योंकि हम सुरसा की भांति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश नहीं लगाते, बल्कि उनकी पूर्ति में अपना पूरा जीवन खपा देते हैं। परंतु इच्छाएं कहां पूर्ण होती हैं। प्रसाद जी का यह पद,’ ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल न सके/ यह विडंबना है जीवन की।’ हमें आवश्यकता है इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान की और उस राह पर चल कर कर्म करने की, ताकि जीवन में सामंजस्य स्थापित हो सके। इसलिए ‘ख्याल रखने वाले को ढूंढिए/ इस्तेमाल करने वाले तो तुम्हें/ स्वयं ही ढूंढ ही लेंगे।’ इसलिए उस प्रभु को ढूंढने की चेष्टा कीजिए और उसकी कृपादृष्टि पाने कि हर संभव प्रयास कीजिए। उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो तुम्हारे मन में बसता है। इसलिए कहा गया है कि ‘तलाश न कर मुझे ज़मीन और आसमान की गर्दिशों में/ अगर तेरे दिल में नहीं, तो कहीं भी नहीं मैं।’ परंतु बावरा मन उसे पाने के लिए दर-दर की खाक़ छानता है। मृग की भांति कस्तूरी की महक के पीछे-पीछे दौड़ता है, जबकि वह उसकी नाभि में निहित होती है। यही दशा तो सब मन की होती है। वह भी प्रभु को मंदिर, मस्जिद आदि में ढूंढता रहता है और कई जन्मों तक उसकी भटकन समाप्त नहीं हो पाती। इसलिए भरोसा रखो ख़ुदा पर, अपनी ख़ुदी पर…आप अनंत शक्तियों के स्वामी हैं। ज़रूरत है- उन्हें जानने की, स्वयं को पहचानने की। जिस दिन तुम पर खुद पर भरोसा करने लगोगे, खुदा को अपने बहुत क़रीब पाओगे, क्योंकि तुम में और उसमें कोई भेद नहीं है। वह आत्मा के रूप में आपके भीतर ही स्थित है। पंच तत्वों से निर्मित शरीर अंत में पंच-तत्वों में विलीन हो जाता है। सो! दुनिया में असंभव कुछ नहीं, दृढ़- निश्चय व प्रबल इच्छा-शक्ति की दरक़ार है। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कर लग जाइए उसकी पूर्ति में, तल्लीनता से, पूरे जोशो-ख़रोश से। सो,! शक़ को अपने हृदय में घर न बनाने दें, मंज़िलें बाहें फैला कर आपका स्वागत करेंगी और समस्त दैवीय शक्तियां तुम्हारा अभिनंदन करने को आतुर दिखाई पड़ेंगी। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। ‘इस संसार में आप जो चाहते हैं, आप पाने में समर्थ हैं।’
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878