हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 58 ☆ व्यंग्य – उनके वियोग में ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘उनके वियोग में ’।  आप ‘वियोग’ पर इस बेहतरीन व्यंग्य को पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया दिए बिना नहीं रह पाएंगे। इस अतिसुन्दर व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 58 ☆

☆ व्यंग्य – उनके वियोग में 

शादी को प्राप्त होने के बाद वे पहली बार मायके जा रही थीं, यानी एक साल बाद। मैं उनके एक साल के निरन्तर संपर्क के बाद एकदम घरेलू प्राणी बन गया था। सींग और दाँत झड़ गये थे और शायद दुम निकल आयी थी।

स्टेशन पर मैं बहुत दुखी था। उनसे पहली बार विछोह हो रहा था। दिल कैसे कैसे तो हो रहा था। रेलगाड़ी बैरिन जैसी लग रही थी और उनकी बगल में डटा साला बैरी जैसा।

उन्हें विदा करके लौटा तो घर भाँय भाँय कर रहा था। यह पढ़ी हुई भाषा है, अन्यथा घर भाँय भाँय कैसे करता है, मुझे नहीं मालूम। मैंने किसी घर को भाँय भाँय करते नहीं सुना।

थोड़ी देर बिस्तर पर पड़ा रहा। हालत उस कुत्ते सी हो रही थी जिसका मालिक खो गया हो। जब चैन नहीं पड़ा तो स्कूटर लेकर मल्लू के घर पहुँच गया। मल्लू पालू के साथ रहता है। दोनों छड़े हैं। शादी के बाद से उनके साथ मेरा उठना बैठना कम हो गया था।

मल्लू ने मेरी शकल देखी तो कैफियत मांगी, और कारण जानते ही वह मुझ पर टूट पड़ा। बोला, ‘बीवी के जाने से अगर तुझे दुख हो रहा है तो तू गधेपन की इन्तहा को प्राप्त हो गया। भगवान ने यह मौका दिया है, कुछ दिन के लिए आदमी बन जा।’

वह मुझे पकड़कर सदर बाज़ार ले गया। हम लोग देर रात तक घूमते, खाते पीते रहे। मुझे लगा धीरे धीरे मेरे दिल की गिरह खुल रही है। थोड़ी देर में मेरा दिल गुब्बारा हो गया। हम लोग खूब मस्ती करते रहे।

दूसरे दिन वे दोनों सबेरे ही मेरे घर आ गये। आराम से चाय-नाश्ता हुआ, फिर हम ग्वारीघाट चले गये। शाम को सिनेमा देखा और फिर रात को सड़कों पर आवारागर्दी करते रहे।

मुझे लगा हे भगवान, मैं एक साल तक कहाँ दफन हो गया था और कैसे एकाएक कब्र में से उठ खड़ा हुआ? यों समझिए कि मेरा नया जन्म हो गया।

तीसरे दिन मैंने अपने घर पर ताला मार दिया और उन्हीं लोगों के साथ फिट हो गया। फिर तो जैसे दिनों को पंख लग गये। रात को बारह-एक बजे तक हुड़दंग मचाते, फिर सबेरे दस ग्यारह बजे तक सोते।

कभी कभी ज़रूर जब रात के सन्नाटे में आँख खुल जाती तो बीवी की याद आ जाती। मन कहता, ‘अरे कृतघ्न, वह उधर गयी और तू उसे भूल कर गुलछर्रे उड़ाने लगा? चुल्लू भर पानी में डूब मर बेशर्म।’ लेकिन सच कहूँ, ये विचार पानी में खींची लकीर जैसे होते थे।

उन दो महीनों में ही मालूम हुआ कि एक साल में हमारा शहर कितना सुन्दर हो गया है और मनोरंजन की सुविधाएं कितनी बढ़ गयी हैं। समझो कि शहर मेरे लिए नया हो गया। यह भी पहली बार मालूम हुआ कि हमारा शहर एक साल में कितना बड़ा हो गया है।

फिर एक दिन उनका फोन आ गया कि वे आ रही हैं। मुझे लगा जैसे किसी ने मुझे स्वर्ग से लात मार दी हो। हम तीनों मित्र एक दूसरे से लिपट कर खूब रोये।

उदास मुख लिये मैं स्टेशन पहुँचा। वे उतरीं तो मेरा मुख देखकर द्रवित हो गयीं। बोलीं, ‘लो, मैं आ गयी। अब खुश हो जाओ।’ मैंने दाँत निकाल दिये। रेलगाड़ी मुझे उस दिन भी बैरिन लग रही थी जिस दिन वे गयी थीं, और आज भी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश