`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ।)
☆ किसलय की कलम से # 9 ☆
☆ हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ ☆
रिश्ता अथवा बंधन शब्द दो या दो से अधिक समान या भिन्न-भिन्न जीवों, वनस्पतियों, पदार्थों आदि की उत्पत्ति का एक ही स्रोत होना, अति निकट आना, परस्पर मिश्रित अथवा समाहित होने का परिणाम है। एक ही प्रजाति के परिवार में परस्पर समानता के गुण पाए जाते हैं। यह समानता मनुष्यों में इसलिए स्पष्ट समझ में आ जाती है क्योंकि मनुष्य एक दूसरे के दैहिक, चारित्रिक, बौद्धिक गुणों के साथ-साथ नृत्य, संगीत, गायन जैसी कलाओं को आसानी से परखने की सामर्थ्य रखता है। वैसे भी एक वंश में उत्पन्न संतति में प्रायः अनेक समानताएँ हम सब देखते चले आ रहे हैं। ये अनुवांशिक गुण खून के रिश्तों में ही पाए जाते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे परिलक्षित होते रहते हैं। फिर बात आती है दो अलग-अलग परिवारों के रिश्तों की, जो वैवाहिक बंधन से बनते हैं। इसमें एक परिवार की लड़की और दूसरे परिवार का लड़का होता है और वह सदा के लिए पति-पत्नी कहलाते हैं। अगले क्रम के रिश्ते इन्हीं दो अलग-अलग परिवारों के शेष सदस्यों से बन जाते हैं, जिन्हें फूफा, मौसी, मामा, नाना, नानी आदि का नाम दिया जाता है। तत्पश्चात मानव विभिन्न कारणों से भी रिश्तों में बँधता-बिखरता रहता है। मालिक-नौकर, दुकानदार-ग्राहक, समान गुण, कला, संगीत, साहित्य, पड़ोस, व्यवसाय आदि में भी रिश्ते कायम होते हैं। एक और रिश्ते को पृथक से वर्गीकृत करना आवश्यक है और वह है मित्रता का रिश्ता। प्रमुखतः ये दो तरह के होते हैं। प्रथम किसी हेतुवश की गई मित्रता और द्वितीय निःस्वार्थ मित्रता। आज निःस्वार्थ मित्रता के रिश्ते बड़े दुर्लभ व कहानियों तक सीमित हो गए हैं। आधुनिक युग में इसे पागलपन कहा जाता है और ये पागलपन भला आज कोई क्यों करेगा?
संबंध या रिश्तों की बात आते ही हम राम-लक्ष्मण, यशोदा-कृष्ण, रावण-विभीषण, देवकी-कंस, अर्जुन-कृष्ण, सीता-राम, पांडव-कौरवों के रिश्तों में स्वयं का किरदार नियत करने की सोचने लगते हैं, लेकिन हम स्वयं की तुलना इनमें से किसी के साथ नहीं कर पाते, क्योंकि आज के युग में हम न लक्ष्मण जैसे भाई बन सकते, न ही यशोदा जैसी माँ और न ही सीता जैसी आदर्श पत्नी, लेकिन हम स्वार्थवश रावण, कंस अथवा कौरवों से भी आगे वाले किरदारों की जरूर सोच लेंगे।
एक समय था जब कबीले का मुखिया सबका ध्यान रखता था, उनके उदर-पोषण का दायित्व सम्हालता था। फिर संयुक्त परिवारों का मुखिया समान रूप से व्यवहार व सुरक्षा करने लगा। एकाध सदी पूर्व का संयुक्त परिवार माँ-बाप, पति-पत्नी और बच्चों तक सिमट गया। पिछले कुछ ही दशकों में हमें अपने माँ-बाप या सास-श्वसुर भी बोझ लगने लगे। वर्तमान में इसका कारण आवश्यकता कम स्वच्छंदता की चाह ज्यादा समझ में आती है। हम अपने ही बूढ़े माँ-बाप या सास-श्वसुर की सेवा नहीं करना चाहते। आखिर हमारी सोच इतनी निम्न क्यों होती जा रही है?
यह बात इतनी सीधी व सरल नहीं है। हम माँ-बाप से अलग रहने पर विवश क्यों हो जाते हैं?
गंभीर चिंतन व मनन से कुछ प्रमुख कारण सामने जरूर आएँगे। सबसे प्रमुख बात है हमारी संस्कृति, संस्कार, परंपराओं और सोच में बदलाव की। अपनी संतानों को हम अपने धार्मिक व पौराणिक ग्रंथों में निहित सीख व उपदेशों के साथ-साथ नाना-नानी की प्रचलित रहीं दिशाबोधी कथा-कहानियों से लगातार दूर रखने लगे। वैसे भी गुरुकुल प्रथा की समाप्ति के पश्चात व्यवसाय केंद्रित शिक्षा ने हमारे सारे आदर्शों को हाशिए पर डाल दिया है। रही शेष बचे प्रेम-भाईचारे, त्याग-समर्पण, सरलता, परोपकार जैसे कर्त्तव्यों की बात, तो इनके दूसरे घृणित पहलुओं पर केंद्रित चलचित्र, टीवी शो, टीवी धारावाहिकों के साथ अब सोशल मीडिया ने भी भारतीय संस्कारों और परंपराओं के विरुद्ध पूरे समाज की सोच और परिवेश तक बदलने की ठान ली है।
आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बात बिना हिंसा, सौदेबाजी, लूटमार, शोषण और वैमनस्यता के पूरी होती ही नहीं है। चूँकि सच्चाई कभी बदली नहीं जा सकती, इसीलिए श्रोताओं व दर्शकों के भय से दस-बीस प्रतिशत सच्चाई को दिखाना इन की विवशता होती है, परंतु हमारी संतानें बार-बार, लगातार यही देखते और सुनते रहने से क्या भ्रमित होने से बच पाएँगी? आज घर के ही सदस्यों के मध्य द्वेष, घृणा, स्वार्थ, अनैतिक संबंधों के दृश्य दिखाने की अनियत सीमा नई पीढ़ी को अमानवीय व तथाकथित आधुनिकता के रंग में रँगना चाहती है। निर्माताओं तथा लेखकों की पैंतरेबाजी, कानून की लचर धाराओं और देश के कर्णधारों का भी इस ओर ध्यान न दिया जाना, वर्तमान के साथ ही भावी पीढी के लिए भी घातक बनता जा रहा है।
संयुक्त परिवार तो अब अंतिम साँसें गिन ही रहे हैं। एकल परिवार का रुझान अब एक आम प्रक्रिया हो चली है। तन-मन-धन खपाने वाले माँ-बाप की त्याग-तपस्या आज मूल्यहीन मानी जाती है। बचपन से जवानी तक किया गया सब कुछ अपनी आँखों से देखने वाली संतान जब स्वयं अपने माँ-बाप को महत्त्व न दे। नवागत वधु अपने सास-श्वसुर की सेवा-सुश्रूषा तथा चिंता की बात तो दूर महत्त्व ही न दें और खुद का बेटा विवश होकर उसका साथ दे, तो क्या होगा उन असहाय बुजुर्ग माँ-बाप का। कोई बाहरी व्यक्ति तो उनकी मदद करने से रहे। बेटे की विवशता और उसकी दुविधा अपने माता-पिता के साथ पत्नी के हितों से भी जुड़ी होती है। स्वभावतः अथवा माता-पिता द्वारा उचित शिक्षा, संस्कार व कर्त्तव्य निर्वहन के गुण सीखकर न आने वाली वधुएँ भी आज केवल पति और अपने बच्चों के साथ एकल परिवारों को बढ़ाने में अहम भूमिका का निर्वहन कर रही हैं। वैसे अविवाहित रहते उनके माँ-बाप द्वारा सिखाने का भी एक समय होता है। आचार-व्यवहार व सलीके स्वयं सीखना भी उनका दायित्व है, लेकिन जब इन बातों की अनदेखी होगी तो परिवार में टूटन के साथ खून के रिश्तो में दरार पड़ने से कोई भी नहीं रोक पायेगा। अपने माता-पिता की छत्रछाया के अनगिनत लाभों को नजर अंदाज कर कुछेक स्वार्थों की पूर्ति हेतु एकल परिवारों की बाढ़ आना आज के युग की सबसे बड़ी विडंबना कही जाएगी। ये पारिवारिक रिश्तों की टूटती कड़ियाँ हमारा दुर्भाग्य ही हैं।
आजकल महिलाओं की आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता आंदोलनों के अधूरे सच ने भी विकट स्थितियाँ निर्मित की हैं। जिस उद्देश्य को लेकर महिला मोर्चा और नारी आंदोलन शुरू किए गए थे उनका मूल उद्देश्य नारी का सम्मान, समानता का भाव और शोषण से मुक्त होना था, लेकिन आज इनकी आड़ में यदा-कदा बहुत कुछ ऐसा भी होने लगा है, जिससे समाज में किंचित असहजता तथा रिश्तों में गाँठें भी दिखाई देने लगी हैं। नारी हितार्थ बने कानूनों का भी दुरुपयोग होते देखा गया है। आज मित्रता हो, संपत्ति बँटवारा हो, वर्चस्व की बात हो अथवा राजनीतिक बात हो, ये लगभग सभी रिश्ते स्वार्थ के सहारे ही अग्रसर होने लगे हैं। गिरते नैतिक मूल्य, निजी स्वार्थों का टकराव और अपनों के प्रति त्याग-समर्पण तथा आत्मीयता की कमी आज आदर्श रिश्तों के अंत के प्रमुख कारकों में गिने जायेंगे।
उपरोक्त सभी तथ्यों पर आदिकाल से ही पढ़ा, सुना और देखा जा रहा है। आज भी यही सब हो रहा है, लेकिन कोई भी इसे स्वीकारने हेतु तैयार नहीं है। आज अधिकांश लोग खून के रिश्तों तक का निर्वहन करना भूलते जा रहे हैं। हम सभी जानते हैं मानव जीवन क्षणभंगुर है, जग में आपकी उपलब्धियों और आपके आचार-व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी याद नहीं किया जायेगा। यह भी परम सत्य है कि रिश्तों तथा अपनों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार व अनैतिक कृत्यों की अंतःपीड़ा से कोई जीवन पर्यंत भी नहीं उबर पाता। अतः मानव की श्रेष्ठ योनि में जन्म लेकर सद्व्यवहार, सत्कर्म, परोपकार तथा रिश्तों के उचित निर्वहन में स्वयं समर्पित होना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है और यही सच्चे अर्थों में रिश्तों की कड़ियों को टूटने से बचाना भी कहलायेगा।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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-डॉ. किसलय