श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – अकाल मृत्यु हरणं ☆

जगत सतत गतिमान है। जगत सतत परिवर्तनशील है। जो कल था, वह आज नहीं है। आज है वह कल नहीं होगा। क्षण-क्षण, हर क्षण परिवर्तन हो रहा है। यह क्षण वर्तमान है। अगले क्षण, पिछला क्षण निवर्तमान है।

उपरोक्त बिंदुओं से लगभग हर व्यक्ति शाब्दिक स्तर पर सहमत होता है। तथापि जैसे ही परिवर्तन स्वयं पर लागू करने का समय आता है वह ठिठक जाता है, ठहर जाता है। अपनी स्थिति में परिवर्तन सहजता से स्वीकार नहीं करता।

अपनी स्थिति में परिवर्तन स्वीकार न कर पाना ही जड़ता है। भौतिकविज्ञान में जड़ता का नियम है। यह नियम कहता है कि किसी वस्तु का वह गुण जो उसकी गति की अवस्था में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का विरोध करता है, जड़त्व (इनर्शिया) कहलाता है। यदि कोई वस्तु विराम अवस्था में है तो वह विराम अवस्था में रहना चाहती है और यदि कोई वस्तु एक समान वेग से गतिशील है तो गतिशील रहना चाहती है जब तक की कोई बाह्य बल इसको अपनी अवस्था परिवर्तन के लिए विवश न कर दे।

विज्ञान, जड़त्व के तीन प्रकार प्रतिपादित करता है, 1) विराम का जड़त्व, 2) गति का जड़त्व और 3) दिशा का जड़त्व। ज्ञान अर्थात अध्यात्म जड़त्व को समग्रता से देखता है। विज्ञान नियम को स्थूल के स्तर पर लागू करता है। अध्यात्म इसे सूक्ष्म तक ले जाता है।

जड़त्व हमारे सूक्ष्म में अपनी जगह बना चुका। सास चाहती है कि कुर्सी गत बीस वर्ष से जहाँ रखी जाती है, वहाँ से इंच भर भी दायें-बायें न हिलाई जाय। बहू कुर्सी की दशा और दिशा दोनों बदलना चाहती है। समय के साथ बहू वांछित परिवर्तन कर भी लेती है। लेकिन अब उसे भी अपने कार्यकलाप और कार्यप्रक्रिया में कोई बदलाव स्वीकार नहीं। वह अब अपनी जड़ता का शिकार होने लगती है।

तन और मन में बसी जड़ता परिवर्तन नहीं चाहती। ऑफिस का समय बदल जाय तो लोग असहज होने लगते हैं। ऑफिस में उपस्थिति बायोमेट्रिक हुई तो लगे कोसने। कइयों को तो जो नया है, वह निरर्थक लगता है। कम्प्युटर आया तो मैनुअल तरीके से काम करने के पक्ष में मोर्चे निकले। मोबाइल आया तो लैंडलाइन का जमकर गुणगान करने लगे। कार्यकलाप ऑनलाइन हो चले पर परिवर्तन के विरोध ने ऑफलाइन ही बनाये रखा।

परिवर्तन का विरोध करनेवाला मनुष्य क्या सारे परिवर्तन रोक पाता है? चेहरे पर झुर्रियाँ बढ़ रही हैं। एंटी एजिंग लोशन लगा-लगाकर थक चुके। रोक लो झुर्रियाँ, रोक सकते हो तो! उम्र हाथ से सरपट फिसल रही है, थाम लो, थाम सकते हो तो! जीवन, मृत्यु की दिशा में यात्रा कर रहा है। बदल दो दिशा, बदल सकते हो तो!

वस्तुत: भीतर का भय, परिवर्तन को स्वीकार नहीं करने देता। भयभीत व्यक्ति आगे कदम नहीं उठाता। जहाँ का तहाँ खड़ा रहता है।

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो परिवर्तित नहीं होता। परिवर्तन चेतन तत्व है। चेते रहने, चैतन्य रहने के लिए परिवर्तन के साथ चलो, कालानुरूप कदमताल करो। अन्यथा काल चलता रहेगा, जड़ता का शिकार पीछे छूटता जाएगा। सृष्टि साक्षी है कि जो काल से पीछे छूटा, अकाल नाश को प्राप्त हुआ।

सनातन संस्कृति जब प्राणिमात्र के लिए ‘अकाल मृत्यु हरणं’ की कामना करती है तो जड़ता के अवसान और चैतन्य के उत्थान की बात करती है।

जड़ता को झटको। काल के अनुरूप चलो। सदा चैतन्य रहो। कालाय तस्मै नम:।

© संजय भारद्वाज

प्रात: 4:53 बजे, 23.8.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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वीनु जमुआर

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो परिवर्तित नहीं होता…जड़ता के अवसान से चैतन्य का उत्थान…जड़ता को झटको…काल के अनुरूप चलो…?✅? सार्थक सोच..सही मार्गदर्शन..प्रेरणादायी लेखन ! साधुवाद। ???

Rita Singh

बहुत अच्छा लेख है ।??????????????सारा दिन तो समय ही नहीं मिला अभी पढ़ने बैठी हूँ। भीतर तक आनंद का अनुभव कर रही हूँ। मनुष्य को या जड़ता ही आगे नहीं जाने देती, चाहे मनुष्य ऊपर से कितना भी बदलता हुआ दिखाई दे उसके भीतर की जड़ता और परिवर्तन के विरुद्ध आवाज़ उठाने की वृत्ति दोनों ही कारण कई बार जीवन में जहाँ थे वहीं रह जाते हैं । उन्नति का कोई रास्ता नज़र नहीं आता।
बहुत सही कहा आपने की जड़ता को झटको। काल के अनुरूप चलो। सदा चैतन्य रहो बहुत सुंदर लेख है आनंद आया पढ़कर।??