श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – धर्म । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 190 ☆
☆ संतोष के दोहे – धर्म … ☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆
मानवता सबसे बड़ा, इस दुनिया का धर्म
साँच दया मत छोड़िये, करें नेक हम कर्म
☆
दीन-दया करिये सदा, कहते दीन दयाल
परहित से बढ़कर नहीं, दूजा कोई ख्याल
☆
आज धर्म के नाम पर, हिंसा करते लोग
समझ सके ना मूल को, लगा अजब सा रोग
☆
एक चाँद सूरज बने, यही धर्म का सार
सब की गणना चाँद से, एक ईश करतार
☆
घृणा करें मत किसी से, रखें प्रेम व्यबहार
यही सिखाता धर्म भी, करिये पर उपकार
☆
प्रथम पूज माँ -बाप हैं, जो हैं ईश समान
उनकी सेवा कीजिये, होंगे तभी सुजान
☆
जिनके जीवन में रहें, काम, क्रोध, मद, लोभ
उनको कब संतोष हो, बढ़ा रहे बस क्षोभ
☆
धर्म, पंथ, मजहब सभी, सबका प्रेमाधार
धर्म सनातन कर रहा, सबका ही उद्धार
☆
सत्य, अहिंसा, दान, तप, श्रद्धा, लज्जा, यज्ञ
इंद्रियसंयम, ध्यान, क्षमा, लक्षण कहते प्रज्ञ
☆
© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
सर्वाधिकार सुरक्षित
आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈