डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी विचारणीय कविता “कैसे कायदे-कानून”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 9 ☆
☆ कैसे कायदे-कानून ☆
औरत!
तेरी अजब कहानी
जन्म से मृत्यु-पर्यन्त
दूसरों की दया पर आश्रित
पिता के घर-आंगन की कली
हंसती-खेलती,कूदती-फलांगती
स्वतंत्र भाव से,मान-मनुहार करती
बात-बात पर उलझती
अपने कथन पर दृढ़ रहती
परंतु, कुछ वर्ष
गुज़र जाने के पश्चात्
लगा दिए जाते हैं
उस पर अंकुश
‘मत करो ऐसा…
ऊंचा मत बोलो
सलीके से अपनी हद में रहो
देर शाम बाहर मत जाओ
किसी से बात मत करो
ज़माना बहुत खराब है’
और उसकी आबो-हवा
व लोगों की नकारात्मक सोच…
उसे तन्हाई के आलम में छोड़ जाती
वह स्वयं को
चक्रव्यूह में फंसा पाती
इतने सारे बंधनों में
वह खुद को गुलाम महसूसती
अनगिनत बवंडर उसके मन में उठते
यह सब अंकुश
उस पर ही क्यों?
‘भाई के लिए
नहीं कोई मंत्रणा
ना ही ऐसे फरमॉन’
उत्तर सामान्य है…
‘तुम्हें दूसरे घर जाना है
अपनी इच्छाओं,अरमानों
आकांक्षाओं का गला घोंट
स्वयं को होम करना है
उनकी इच्छानुसार
हर कार्य को अंजाम देना है
अपने स्वर्णिम सपनों की
समिधा अर्पित कर
पति के घर को स्वर्ग बनाना है
जानती हो
‘जिस घर से डोली उठती
उस घर की दहलीज़
पार करने के पश्चात्
तुम्हें अकेले लौट कर
वहां कभी नहीं आना है’
शायद! तुम नहीं जानती
अर्थी उसी चौखट से उठती
जहां डोली प्रवेश पाती
हां! मरने के पश्चात्
मायके से तुम्हें प्राप्त होगा कफ़न
और उनके द्वारा ही किया जाएगा
मृत्यु-भोज का आयोजन
वाह! क्या अजब दस्तूर है
इस ज़माने का
जहां वह जन्मी, पली-बढ़ी
वह घर उसके लिये पराया
माता-पिता, भाई-बहनों का
प्यार-दुलार मात्र दिखावा
असत्य, मिथ्या या ढकोसला
पति का घर
जिसे अपना समझ
उसने सहेजा, संवारा, सजाया
तिनका-तिनका संजोकर
मकान से घर बनाया
उस घर के लिये भी
वह सदैव रहती अजनबी
सब की खुशी के लिए
उसने खुद को मिटा डाला
सपनों को कर डाला दफ़न
कैसी नियति औरत की
क्या पति-पुत्र नहीं समर्थ
जुटा पाने को दो गज़ कफ़न
मृत्यु-भोज की व्यवस्था
कर पाने में पूर्णत: अक्षम, असमर्थ
हां! वे रसूखदार लोग
चौथे दिन करते
शोक सभा का आयोजन
आमंत्रित होते हैं
जिसमें सगे-संबंधी
और रूठे हुए परिजन
शिरक़त करते
बरसों पुराने
ग़िले-शिक़वे मिटाने का
शायद यह सर्वोत्तम अवसर
वहां सब ज़ायकेदार
स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर
अपने दिलों का हाल कहते
और उनकी नज़रें एक-दूसरे की
वेशभूषा पर टिकी रहतीं
जैसे वे मातमपुर्सी में नहीं
फैशन-परेड में आये हों
रसम-पगड़ी से पहले
औपचारिकतावश
उसका गुणगान होता
अच्छी थी बेचारी
कर्त्तव्यनिष्ठ, त्याग की मूर्ति
मरती-खपती, तप करती रही
सपनों को रौंद, तिल-तिल कर
स्वयं को गलाती रही
पुत्र के कंधों पर
पूरे परिवार का दायित्व डाल
सब चल देते हैं
अपने-अपने आशियां की ओर
परन्तु, एक प्रश्न
कुलबुलाता है मन में
वे करोड़ों की
सम्पत्ति के मालिक
पिता-पुत्र, क्यों नहीं कर सकते
भोज की व्यवस्था
और उस औरत को क्यों नहीं
दो गज़ कफ़न पाने का अधिकार
उस घर से
जिसे सहेजने-संजोने में उसने
होम कर दिया अपना जीवन
क्या यह भीख नहीं…
जो विवाह में दहेज
और निधन के पश्चात्
भोज के रूप में वसूली जाती
काश! समाज के
हर बाशिंदे की सोच
दशरथ जैसी होती
जिसने अपने बेटों के
विवाह के अवसर पर
जनक के पांव छुए
और उसे विश्वास दिलाया
कि वह दाता है
क्योंकि उसने अपनी बेटियों को
दान रूप में सौंपा है
जिसके लिये वे आजीवन
रहेंगे उसके कर्ज़दार
काश! हमारी सोच बदल पाती
और हम सामाजिक कुप्रथाओं के
उन्मूलन में सहयोग दे पाते
बेटी के माता-पिता से
उसके मरने के पश्चात्
टैक्स वसूली न करते
और मृत्यु कर का
शब्दकोश में स्थान न रहता
हमें ऐसी प्रतिस्पर्धा
पर अंकुश लगाना होगा
ताकि गरीब माता-पिता को
रस्मो-रिवाज़ के नाम पर
दुनियादारी के निमित्त
विवशता से न पड़े हाथ पसारना
और वे सुक़ून से
अपना जीवन बसर कर सकें
© डा. मुक्ता
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com