डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
मदर्स डे
( डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।)
मातृदिवस पर कोई दो साल पहले लिखी थी एक कविता. सोचा उसी दिन था कि पोस्ट कर दें पर फिर मन किया कि अभी तो बाढ़ आई हुई है.कविता भी जल जैसी होती है. मन और समय की उथल-पुथल में कविता और उसके अभिप्रेत अर्थ उसी तरह गड्ड-मड्ड होकर उसे अग्राह्य कर देते हैं जैसे बाढ़़ के पानी में मिट्टी और अन्य तरह की गंदगियां मिलकर पानी को।
मानव वृत्तियाँ भी इसी तरह से कुविचारों से प्रदूषित होकर सुयोधन को दुर्योधन बना देती हैं-“जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः।जानामि अधर्मं न च मे निवृत्तिः।।”
बाढ़ के पानी को तत्काल नहीं पिया जा सकता. स्थिर होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है.ऐसे ही कविता भी मन और समय स्थिर होने पर ही रसपान के योग्य होती है.अब यह मान कर कि कविताओं की बाढ़ थम गई है तो सोचा कि मैं भी’माँ’पर सृजित अपनी वह कविता पोस्ट ही कर दूं.शायद आप सबको भाए.
अपनी कृति और प्रकृति से हर माँ एक-सी होती है पर बेटे -बेटियाँ प्रायः भिन्न-भिन्न भाव-स्वभाव के होते हैं. अधिकांश माएँ दयालु ही होती हैं .करुणा और वात्सल्य का सागर होती हैं ये माएँ।
संतानें इनमें भी खासकर बेटे माँ के मानक पर खरे नहीं उतरते .इन्हीं बेटों में से एक प्रतिनिधि चरित्र का शब्द चित्र प्रतिक्रिया की अनिवार्य अपेक्षा के साथ आप सभी मित्रों को समर्पित है-
मदर्स डे
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हिंडोले -सी झूलती हुई चारपाई में
गुड़ी-मुड़ी
वर्षों से कोने में पड़ी हुई
गठरी
कोई गठरी-वठरी नहीं है
चौधरी की माँ है वह
यानी पुरानी हवेली के मौजूदा मालिक की
वह रोज़ हड़काता है उसे
मालिकाना रुआब में
आज भी हड़का रहा है
वह अपनी गुड़ीमुड़ी माँ को
“टीबी की मरीज़ -सी
क्या सुबह से खाँस-खाँस कर
अकच्छ किए हो
गिनो तो पूरे चार दिन भी
ठीक से नहीं बचे हैं ज़िंदगी के
ये तो बिता लो ठीक से
बाबू जी कह-कह के हार के चले गए
पर गंदगी करने की
आदत गई नहीं तुम्हारी
बाबू जी इसी से छोर चलाते थे तुम पर”
जिनकी आरती उतरती थी
करवाचौथ को
मरखन्ने बैल-से थे वही बाबू जी
बात-बात पर सींग चला देते थे
वह गऊ -सी बाँ-बाँ करके चिल्ला पड़ती थी
उस पर वही छोर पड़ रहे थे
वर्षों बाद
आखिर ज़बान भी तो चमड़े की ही होती है न
बेटे की जीभ और बाप के छोर के
रूप ओर आकार में अंतर भले था
पर मार में नहीं
वह बाँ भी न कर सकी इस बार
बस निहार के रह गई
अपने चाँद के टुकड़े को
वह उसे पीला-पीला लग रहा था इन दिनों
जैसे किसी
राहु ने ग्रस रखा हो उसे
तब तक खांसी भी फिर से आ गई थी ज़ोरों की
कहने को कह सकती थी
‘तुम्हारी ही गंदगी थी वह
जिसके लिए खाती थी छोर
तुम्हारी यह गंदी माँ’
पर कह न सकी
नज़र भर देखा गोल-मटोल पोते और
सामने से गुजरती सजी-धजी बहू को
देखती ही रह गई
वहाँ से नज़र हटी तो
एक बार फिर चाहा कि कह दे
उन्हीं पर गए हो बेटा!
इसी से तुम्हें भी दिखती हूँ गंदी,भदेस
एक बार ज़ोर भी लगाया कि कहे
होंठ हिले भी थे कुछ
वह यह कह पाती कि उसके पहले ही
बेटे ने हाथ ऊपर उठा इशारा कर कहा
“अच्छा चलो… उठो यहाँ से
अपना थूकदान सँभालो
जाओ थोड़ी देर
चौबाइन काकी के बरामदे में बैठो
यहाँ मेहमान आने वाले हैं
पिंटू आज ‘मदर्स डे’.
सेलीब्रेट करेगा ।”
@ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
हृदय विदारक कविता, चीफ़ की दावत की याद दिलाती, मौलिक कविता
जीवंत रचना के लिए बधाई।
ओह। कितना मार्मिक और जीवंत चित्रण किया है आपने। इस रचना ने हृदय को छुआ ही नहीं झकझोर कर रख दिया। अशेष साधुवाद।
जीवन की हकीकत