श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया।

कृतियां/रचनाएं – चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान – कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।)

 ☆ होली पर व्यंग्य ☆ इंकलाबी होली ☆

मेरी कॉलोनी की महिलाओं ने पिछले माह एक अनूठे क्लब का गठन किया था और उसका नाम धरा ‘रीति तोड़क क्लब’। श्रीमती रीति वर्मा उस क्लब की संचालिका हुईं। क्लब की पहली बैठक में एक प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ कि नारियों को भी साप्ताहिक अवकाश मिलना चाहिए। रीति वर्मा ने ही उस रीति को तोड़ने के लिए वह प्रस्ताव रखा था। उस प्रस्ताव को अभूतपूर्व समर्थन मिला। अभूतपूर्व इसलिए कि उससे पूर्व कोई प्रस्ताव ही पेश नहीं हुआ था। खैर, वह प्रस्ताव उसी भांति आसानी से पारित हो गया जिस तरह सांसदों-विधायकों के वेतन-भत्तों के विधेयक आनन फानन पास हो जाते हैं। सदस्याओं के पतियों को उस प्रस्ताव की प्रति देकर आगाह कर दिया गया कि वे आने वाले रविवार को घर संभालने के लिए, कमर कस कर तत्पर हो जाएं। बेचारे हुए भी। अपन भी उन बेचारों में से एक थे। चालू माह में चार रविवार पड़े और अगले माह पांच पड़ेंगे, कलैंडर को पलट पति नामक जीव कंपायमान हो गया।

एक कलैंडर रीति वर्मा ने भी पलटा लेकिन उनका मकसद कुछ और था। वे क्लब की अगली बैठक की तिथि तय करने के साथ ही कोई नया रीति तोड़क प्रस्ताव भी लाना चाहती थी। अगले माह होली है। श्रीमती वर्मा की आंखें चमक उठीं। वे बुदबुदायीं, ‘‘अरे वाह! कुल छः छुट्टियां हो जाएगीं। पांच तो संडे ही होंगे और एक दिन होली का। होली के दिन पति संभालेंगे घर और हमारा क्लब खेलेगा होली…हुर्रे…।’’

संचालिका महोदय ने दूसरी दोपहर को ही क्लब की दूसरी बैठक बुला ली और वह प्रस्ताव रख दिया। उसे सुनते ही मीटिंग हॉल में भूचाल आ गया। वह, ठहाकों का भूकंप था। घर ही हिल उठा था। कुछ सदस्याएं तो उठ कर नाचने लगीं। एक ने रीति वर्मा को बांहों में भर लिया, ‘‘कसम से क्या मार्वलस ऑयडिया लायी है, डीयर!’’

वह प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ और उसका नोटिफिकेशन भी तत्काल तैयार किया गया क्योंकि होली अगले हफ्ते ही थी। शाम को घर में प्रवेश करते ही मैडम ने वह टाइपशुदा नोटिस मेरे हाथ में थमा दिया। उसे पढकर मैं हैरत से बोला, ‘‘अन प्रेक्टिकेबल प्रपोजल है, यह। इस शहर को जानती हो, यहां स्त्रियां नार्मल डेज में ही सेफ नहीं होतीं, वे होली के हुडदंगी माहौल में कैसे सुरक्षित रह सकेंगी?’’

‘‘अरे, मैं कोई अकेली ही थोड़े खेलूंगी, हमारा पूरा ग्रुप होगा।’’ पत्नी वीरोचित भाव से बोली।

‘‘देखो, हमारे घर से आज तक कोई घर से बाहर गया नहीं। मैं खुद नहीं निकलता।’’ मैंने समझाने का एक प्रयास और किया।

‘‘आप तो रहने ही दो। गुलाल का एक टीका लगाने से ही लाल-पीले हो जाते हो। कलर न खुद लगवाते और न हमें लगवाने देते। सच, मेरा तो बहुत मन करता है, किसी पर जी भर कर रंग डालने का। पीहर में खूब खेलती थी। शादी के बाद अब, अवसर आया है तो यह चौहान क्यों चूके।’’ अपनी ओर संकेत करते हुए, श्रीमतीजी खिलखिला गयीं और हमारा मन होलिका सा दहक गया।

होली दहन के दूसरे दिन ‘रीति तोड़क क्लब’ की सदस्याएं भोर होते ही क्लब के प्रांगण में पहुंच गयीं। अजब सा उछाह था, सबके मन में। रात को ही सारी तैयारी हो चुकी थी। महिलाएं किसी भी हाल में पुरूषों से पीछे नहीं रहना चाहती थीं। ठंडाई घुट रही थी। टबों में लाल-नीले-हरे रंग भरे हुए थे। उनके पास एक मेज पर लंबी लंबी पिचकारियां रखी थीं। उनके पास ही गुलाल भरी थालियां रखी थीं। सबने छक कर ठंडाई पी। रंगों से एक दूसरे को सरोबार किया। जी भर कर गुलाल मली। उल्लास के वातावरण में संयोजिका ने उद्घोष किया, ‘‘अब हम नगर फेरी को चलेंगे।’’ प्रौढ महिलाएं आगे आयीं। युवतियों को पीछे रखा। कॉलोनी की सड़कों पर होली के भजन गाता हुआ वह दल आगे बढा। उन स्वरों को सुनकर अनेक घरों के खिड़की दरवाजे खुल गए थे। जिस घर के सम्मुख कोई स्त्री दिख जाती तो उन्हें गुलाल का टीका अवश्य लगाया जाता।

कॉलोनी का अंत आ गया था। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वहीं से वापस होना था किन्तु न जाने ऐसा क्या हुआ कि वह हुजूम आगे बढता ही गया। सुरों का सरगम बेढब हो गया। सुरीले स्वर फटने लगे। कदम लहराने लगे। वस्त्र, अस्त-व्यस्त हो गए। किसी को सड़क के किनारे एक टूटा हुआ कनस्तर दिख गया। एक युवती ने उसे उठा लिया और उसे एक टहनी से पीटती हुई, भौंडे ढंग से कोई रसिया गाने लगी। कॉलोनी के पास ही कच्ची बस्ती थी। उस जुलूस का रूख उस ओर ही था। वहां एक झोंपड़ी के आगे कुछ युवक मद्यपान में लीन थे। अधनंगे बच्चे एक दूसरे पर धूल उड़ाते खेल रहे थे।

अपनी ओर नाचती गाती स्त्रियों को आता देख हिचकी लेता एक लड़का बोला, ‘‘..हे…हे…अरे देख…कितने सारे हिंजड़े।’’ टोली के पास आते ही एक युवक उठ खड़ा हुआ, ‘‘अरे…बुआ! आज किसे कत्ल कर डालने का इरादा है?’’

इससे पहले कि तथाकथित बुआ कोई जवाब दे एक मनचले ने एक युवती से ठिठोली कर दी। प्रत्युत्तर में उसने तमाचा रसीद कर दिया। ‘‘इनकी यह औकात जो हम पर हाथ उठाएं। अभी चखाते हैं, इन्हें मजा।’’, वहां घिर आए कई मर्द चीखे।

इससे पहले कि कोई गजब हो। होली पर पुलिस का गश्ती दल वहां आ गया और उन महिलाओं को सुरक्षा मुहैय्या करा दी। बाद में भेद खुला कि ठंडाई पीसने वालों ने अपनी आदत के मुताबिक उसमें भांग मिला दी थी।

 

© प्रभाशंकर उपाध्याय

193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

सम्पर्क-9414045857

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