हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 15 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 15 – कर्मपथ ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली किन परिस्थितियों से दो चार थी, किस प्रकार पहले नियति के क्रूर हाथों द्वारा नशे के चलते पति मरा।  फिर आतंकी घटना में उसका आखिरी सहारा पुत्र गौतम मारा गया जिसके दुख ने उसके चट्टान जैसे हौसले को तोड़ कर रख दिया। वह गम व पीड़ा की साक्षात मूर्ति   बन कर रह गई।  अब उस पर पागल  पन के दौरे पड़ने  लगे थे।  इसी बीच एक सामान्य सी घटना ने उसके दिल पर ऐसी चोट पहुचाई कि वह दर्द की पीड़ा से पुत्र की याद मे छटपटा उठी।  फिर एकाएक उसके जीवन में गोविन्द का आना उसके लिए किसी सुखद संयोग से कम न था।  इस मिलन ने जहाँ पगली के टूटे हृदय को सहारा दिया, वहीं गोविन्द के जीवन में माँ की कमी को पूरी कर दिया। अब आगे पढ़े——-—-)

गोविन्द जब पगली का हाथ थामे ग्राम प्रधान के अहाते में पहुंचा तो उसके साथ  दीन हीन अवस्था में एकअपरिचित स्त्री को देख सारे कैडेट्स तथा अधिकारियों की आंखें आश्चर्य से फटी रह गई।

लेकिन जब ग्राम प्रधान ने पगली की दर्दनाक दास्ताँन लोगों को सुनाया, तो लोगों के हृदय में उसके प्रति दया तथा करूणा जाग पड़ी। उसी समय उन लोगों नें पगली को शहर ले जाने तथा इलाज करा उसे नव जीवन देने का संकल्प ले लिया था,तथा लोग गोविन्द के इस मानवीय व्यवहार की सराहना करते थकते नहीं थे।  सारे लोग भूरिभूरि प्रशंसा कर रहे थे।

जब गोविन्द कैम्पस से घर लौटा तो वह अकेला नही, पगली केरूप में एक माँ की ममता भी उसके साथ थी। जहाँ एक तरफ पगली के जीवन में गौतम की कमी पूरी हो गई, वहीं एक माँ की निष्कपट ममता ने गोविन्द को निहाल कर दिया था

गोविन्द के साथ एक असहाय सा प्राणी देख तथा उसकी व्यथा कथा पर बादशाह खान तथा राबिया रो पड़े थे। लेकिन वे करते भी क्या?  लेकिन गोविन्द का इंसानियत के प्रति लगाव निष्ठा तथा खिदमतगारी ने राबिया तथा बादशाह खान के हृदय को आत्म गौरव से भर दिया था। उन्हें नाज हो आया था अपनी परवरिश पर।  गर्व से उनका सीना चौड़ा हो गया था । उन दोनों ने मिल कर पगली की देख रेख में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पगली की सेवा के बाद उन्हें वही आत्मशांति मिलती, जो लोगों को पूजा के बाद अथवा खुदाई खिदमत के बाद मिलती है।

अब पगली को सरकारी अस्पताल के मानसिक रोग विशेषज्ञ को दिखाया गया।  अब इसे दवा इलाज का प्रभाव कहें या बादशाह खान, राबिया, गोविन्द  तथा मित्रों के देख रेख सेवा सुश्रुषा का परिणाम।  पगली के स्वास्थ्य में उत्तरोत्तर दिनों दिन बहुत तेजी से सुधार हो रहा था।

वे लोग पगली को एक नया जीवन देने में कामयाब हो गये थे।

मानसिक रूप से बिखरा व्यक्तित्व निखर उठाथा। अब पगली मानसिक पीड़ा के आघातों से उबर चुकी थी और एक बार फिर निकल पड़ी थी जिन्दगी की अंजान राहों पर अपनी नई मंजिल तलाशने अब उसने शेष जीवन मानवता की सेवा में दबे कुचले बेसहारा लोगों के बीच में बिताने का निर्णय ले लिया था, तथा मानवता की सेवा में ही जीने मरने का कठिन कठोर निर्णय ले लिया था। अपना शेष जीवन मानवता की सेवा में अर्पण कर दिया था।  अब उसका  ठिकाना बदल गया था।

वह उसी अस्पताल प्रांगण में बरगद के पेड़ के नीचे नया आशियाना बना कर रहती थी जहाँ से उसने नव जीवन पाया था।  अब वह “अहर्निश सेवा  महे” का भाव लिए रात दिन निष्काम भाव से बेसहारा रोगियों की सेवा में जुटी रहती।  उसने दीन दुखियों की सेवा को ही मालिक की बंदगी तथा भगवान की पूजा मान लिया था। अपनी सेवा के बदले जब वह रोगियों के चेहरे पर शांति संतुष्टि के भाव देखती तो उसे वही संतोष मिलता जो हमें मंदिर की पूजा के बाद मिलता है।

उसे उस अस्पताल परिसर में डाक्टरों नर्सों तथा रोगियों द्वारा जो कुछ भी खाने को मिलता उसी से वह नारायण का भोग लगा लेती तथा उसी जगह बैठ कर खा लेती। यही उसका दैनिक नियम बन गया था।  उसके द्वारा की गई निष्काम सेवा ने धीरे धीरे उसकी एक अलग पहचान गढ़ दी थी। वह निरंतर अपने कर्मपथ पर बढ़ती हुई त्याग तपस्या तथा करूणा की जीवंत मिशाल बन कर उभरी थी। मानों उसका जीवन अब समाज के दीन हीन लोगों के लिए ही था। अस्पताल के डाक्टर नर्स जहां मानवीय मूल्यों की तिलांजलि दे पैसों के लिए कार्य करते,  वहीं पगली अपने कार्य को अपनी पूजा समझ कर करती।  अस्पताल में जब भी कोई असहाय या निराश्रित व्यक्ति आवाज लगाता पगली के पांव अनायास उस दिशा में सेवा के लिए बढ़ जाते। वह सेवा में हर पल तत्पर दिखती।  अपनी सेवा के बदले उसने कभी किसी से कुछ नही मांगा।  वह जाति धर्म ऊंच नीच के भेद भाव से परे उठ चुकी थी। उसके हृदय में इंसानियत के लिए अपार श्रद्धा और प्रेम का भाव भर गया था। अगर सेवा से खुश हो कोई उसे कुछ देता तो उसे वह वहीं गरीबों में बांट देती तथा लोगों से कहती जैसी सेवा तुम्हें मिली है वैसी ही सेवा तुम औरों की करना।  इस प्रकार वह एक संत की भूमिका निर्वहन करते दिखती, अपनी अलग छवि के चलते उसके तमाम चाहने वाले बन गये थे, ना जाने वह कब पगली से पगली माई बन गयी कोई कुछ नही जान पाया। इस प्रकार उसे जीवन जीने की  नई राह मिल गई थी। जिसका दुख पीड़ा की परिस्थितियों से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था।


क्रमशः 
–—  अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 16 – उन्माद

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

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