श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  दो भागों में एक लम्बी कहानी  “पथराई  आँखों के सपने ”।   

श्री सूबेदार पाण्डेय जी का आग्रह –  इस बार पढ़े पढ़ायें एक नई कहानी “पथराई आंखों का सपना” की अंतिम कड़ी और अपनी अनमोल राय से अवगत करायें। हम आपके आभारी रहेंगे। पथराई आंखों का सपना न्यायिक व्यवस्था की लेट लतीफी पर एक व्यंग्य है जो किंचित आज की न्यायिक व्यवस्था में दिखाई देता है। अगर त्वरित निस्तारण होता तो वादी को न्याय की आस में प्रतिपल न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का दंश न झेलना पड़ता। रचनाकार  न्यायिक व्यवस्था की इन्ही खामियों की तरफ अपनी रचना से ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आशा है आपको पूर्व की भांति इस रचना को भी आपका प्यार समालोचना के रूप में प्राप्त होगा, जो मुझे एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकेगा।)

? धारावाहिक कहानी – पथराई आंखों का सपना  ? 

(आपने पढा़—-किस प्रकार मंगरी चकरघिन्नी बनी कभी वकील की चौकी कभी न्यायालय के दफ्तर कभी पुलिस थाने का चक्कर काटती न्याय की आस में भटक रही थी, उसकी आंखों में न्याय पाने की आस तथा सबका उपेक्षित व्यवहार ही उसके साथ होता।  अब आगे पढ़े——)  

दुख जब ज्यादा होता धैर्य जब छूट जाता तो किसी कोने में बैठ चुपचाप रो लेती।  फिर चुप हो जाती इस उम्मीद में अपने दिल को दिलासा दे लेती कि एक न एक दिन सत्य की जीत अवश्य होगी।

इन्ही उम्मीद के सहारे तो उसने अपने बेटे का नाम सत्यजीत रखा था। लेकिन तब उसे कहाँ पता था कि सत्य के पीछे चलती हुई वह एक दिन खुद इस जहाँ से चली जायेगी, और फिर वह सत्य को विजेता होते कभी भी नहीं देख पायेगी।

इन्ही आशा और निराशा के बीच झूलती मंगरी को उत्साह जनक खबर मिली कि उसके मुकदमे की सुनवाई पूरी हो गई है।  न्यायधीश ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। फैसले की तारीख नियत हो गई है।  इस सुखद खबर ने एक बार फिर मंगरी के टूटते हौसले को सहारा दिया।  जिसने उसके दिल में जोत तथा आंखों में भविष्य के सपनें सजा दिये थे।  उसके फड़कते बायें अंग तथा दिल की धड़कन से अपनी विजय का शंखनाद स्पष्ट सुनाई दे रहा था।

लेकिन इंतजार की घड़ियाँ लंबी हो चली थी।  उसके एक एक दिन एक एक युग के समान बीत रहे थे। इस बीच बड़ी मुश्किल से मंगरी ने अपने श्रम तथा घर में रखे अन्न बेच कर ही वकील के फीस का इंतजाम किया था। फिर भी गाँव से शहर के न्यायालय आने के लिए बस के किराये के पैसे कम पड़ रहे थे।

आज फैसले का दिन था, वह सुबह सबेरे बिना कुछ खाये पिये मारे खुशी के खाली पेट ही घर से चल पडी़ थी, गाँव के चौक की तरफ जंहा से बसें जाती है शहर को।  उसने रास्ते के लिए चार मोटी रोटियां तथा अचार के कुछ टुकड़े भर लिए थे अपने झोले में और बस स्टैंड तक पहुँच शहर जाने वाली बस में बैठ गई थी।

बस तय समय पर अपने गंतव्य पथ की तरफ चली, लेकिन किराया न चुकाने के कारण कंडक्टर ने भुनभुनाते हुये मंगरी को बस से नीचे उतार दिया था।
। उसने हाथ पांव जोड़े लाख अनुनय विनय किया गिड़गिडा़यी लेकिन कंडक्टर ने उसकी एक भी नहीं सुनी।  असहाय मंगरी जाती हुई बस को आंखों से ओझल होने तक हसरत भरे नेत्रों से देखती रही।

मई माह का मध्य महीना भगवान भाष्कर अपने प्रचंड तापवेग से तप रहे थे, ऐसे में तेज पछुआ हवा के थपेड़े गर्म लू का अहसास करा रहे थे, क्या पशु क्या पंछी क्या जानवर क्या इंसान सभी गर्मी के प्रचंड ताप वेग से छांव की ठांव ले बैठे थे।  सहसा मंगरी की तंद्रा भंग हुई।  उन विपरीत परिस्थितियों की परवाह न करके अपने छोटे बच्चे का हाथ थामे लगभग दौड़ने वाले अंदाज में पैदल ही धूप में जलती चलती जा रही थी अपने लक्ष्य की ओर।  न्याय पाने की खुशी में लू की गर्मी तथा तेज धूप की जलन का अहसास ही नहीं था उसे।  उसे जल्दी पडी़ थी कि कहीं उसे न्यायालय पहुचने मे देर न हो जाये और वह अपने भाग्य का फैसला सुनने से वंचित न रह जाय।

वह तेज चाल से लगभग दौडती हुई बच्चे के साथपहुंच न्यायालय के दरवाजे के खंभे के पास खडी़ हांफ रही थीं तथा अपनी उखड़ी सांसों पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रही थी कि तभी न्यायिक परिसर में उसके नाम की आवाज गूंजी और वह सुनते ही दौड़ पडी़ न्यायधीश के कक्ष की तरफ। वह न्यायिक कुर्सी के सामने  पंहुची ही थी कि वहीं पर भहरा कर गिर पडी़ उसकी आखें पथरा गईं, मुंह खुला रह गया। न्याय पाने के पहले ही न्याय की आस लिए उसके प्राण पखेरू इस नश्वर संसार से अनंत की ओर उड़ चले।  उसके झोले से बाहर बिखरी रोटियां उसके भूख पीडा़ बेबसी की दास्ताँ बयां कर रहे थे  और न्याय कक्ष में उपस्थित वादी प्रति वादी गण उसकी  आंखों में झांक अपने न्याय का भविष्य तलाश रहे थे। क्योंकि  लगभग उन्ही परिस्थितियों से वे भी दो चार हो रहे थे।  उसकी पथराई आंखों में अब भी अपने बेटे के लिए न्याय पाने का सपना मचल रहा था।

न्याय कक्ष में स्थापित न्याय की देवी के आंखों में बधी पट्टी के नीचे गीलापन मांनो मंगरी की विवशता पर संवेदनायें व्यक्त कर रही थी।  वहीं पर न्यायालय के छत पर टंगे पंखे की खटर पटर की आ रही आवाजों के बीच पंखे के हवा के झोकों  से न्याय की देवी के हाथ में थमें तराजू के पलड़े उपर नीचे होते हुये न्यायिक देरी से हुये वादी के प्रति अन्याय की दुविधा को प्रकट करते जान पडे़ थे और न्यायधीश महोदय अपने माथे पर हाथ धरे सिर नीचे किये चिंतित मुद्रा में कुछ सोच रहे थे।  उनके माथे पर चुहचुहा आई पसीने की बूंदें सबेरे की ओस का आभास करा रही थी।

उनके ठीक सामने दीवार पर उत्कीर्ण सूत्र वाक्य (सत्यमेव जयते) मानों हवा के झोकों से उड़ रहे कानून की किताब के पन्नों को मुंह चिढा़ रहे थे। आज के दिन पहली बार  किसी वादी को मिलने वाला न्यायिक फैसला पढ़ा नहीं जा सका और अन्याय से लड़ने का उसका हौसला समूची कानूनी प्रक्रिया के  सामने यक्ष प्रश्न बन मुंह बाये खडा़ था। जो पुलिसिया तंत्र जीते जी मंगरी को गुजारा भत्ता तथा न्याय नहीं दिलवा सका वही तंत्र आज चाक चौबंद हो पोस्ट मार्टम प्रक्रिया हेतु पांच गज मारकीन  के कपड़े में लिपटी मंगरी की लाश को उठाते हुये संवेदना प्रकट कर रहा था। न्यायिक कक्ष के बाहर खड़े सत्यजीत का हाथ थामे मंगरी का पिता उस अनाथ को परिसर से बाहर ले श्मशान घाट की तरफ बढ़ चला था। मंगरी की चिता को अग्नि का दान करने।

न्यायिक कक्ष में छाई खामोशी अब भी कुछ यक्ष प्रश्न लिए खडी़ थी।

मंगरी की मौत का जिम्मेदार कोन???????

सारे प्रश्न अनुत्तरित।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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