श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई – दमयंती ”।
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी के ही शब्दों में -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है। किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी। हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)
☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती – भाग 5 – गौतम ☆
(आपने अब तक पढ़ा – दमयंती उर्फ पगली का बचपन मायके में बीता, जवान हुई, विवाह हुआ, ससुराल आई, नशे के चलते सुहाग रात को मिली पीडा़ ने उसके जीवन के खुशियों को छिन्न भिन्न कर दिया। काफी अरसे तक खुशियाँ उससे रूठी रही, पोते पोतियों के साथ खेलने की चाह मन में लिए ही, सास ससुर भगवान को प्यारे हो गये, अधेडा़वस्था में पुत्र पैदा हुआ जिसके सहारे ही पगली ने अपनी जिन्दगी के सुनहरे ख्वाब सजाये थे। अब आगे पढ़ें ——–)
पगली अपने पुत्र गौतम पर अपनी जान छिड़कती थी। उसने उसे इंसानियत का पाठ पढ़ाया था। जिससे बढ़ते हुए गौतम ने अपने विनम्र व्यवहार के चलते लोगों का दिल जीत लिया था। लेकिन परिवार में गरीबी के चलते कुछ मजबूरियां भी थी। कभी कभी फाकाकशी की नौबत आ जाती। उसकी गांव के बड़े बुजुर्गों तथा बच्चों में अलग ही छवि थी। वह पढ़ने लिखने में मेधावी था। कभी वह बच्चों के झुण्ड में खेलता, कभी लुका छिपी खेलते खाना बनाती पगली के पीछे जा छुपता। और कभी अचानक आकर चुपके से उसका मुख चूम लेता, तो निहाल हो जाती पगली, और सारी ममता सारा प्यार गौतम पर उड़ेल देती तथा उसे बाहों में भर लेती।
एक दिन गौतम को पास खेलते देख बचपने की स्मृतियों में खो गई पगली। बचपन की यादें सजीव हो उठी थी उसके ओंठ बुदबुदा उठे थे, उसके हृदय के उद्गार शब्दों के रूप में मचल उठे थे।
ओ नटखट बचपन बच्ची बच्चे बन,
मेरे घर आंगन में आया।
तेरे आने से मेरे घर,
खुशियों का सागर लहराया।
तेरा सुन्दर मुखड़ा चूम चूम,
दिल खुशियों से भर जाता है।
तेरे संग हंसी ठिठोली में,
दुख दर्द कहीं खो जाता है।
जब तुझको गोद उठाती हूँ,
तो यादों में खो जाती हूँ।
तेरी आंखों झांकी तो,
अपना बचपन ही पाती हूँ।
कभी पास आना पैरों से लिपटना,
कभी गोद में खिलखिला कर के हंसना।
कभी हाथ उठाये मेरे पीछे चलना,
खिलौने की खातिर कभीतेरा मचलना।
कभी हाथ मैनें जो तेरा पकड़ा,
तेरा मचलना औ भाग जाना।
तेरा नटखट पन ये तेरी शरारत,
ना जाने मुझे क्यूं बनाती दिवाना।
एक टाफी की खातिर कभी मुझसे लड़ता,
घोड़ा बनाता कभी पीठ चढ़ता।
कभी बेटा बन कर कहानी है सुनता,
कभी बाप बन के मुझे डांट जाता।
ऐ बचपन तू बच्चा बन करके आता,
उजड़े चमन में भी हरियाली लाता।
तेरे आने से घर में आती बहारें,
जीवन में खुशियों की पडती फुहारें।
इस प्रकार धीरे धीरे समय मंथरमंथर चलता रहा और गौतम भी बढता रहा अपनी उम्र के साथ।
– अगले अंक में पढ़ें – पगली माई – दमयंती – भाग -6 – फांकाकशी
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208
मोबा—6387407266