हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “ इंसानियत ”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #

☆ इंसानियत  ☆

 

बचपन में सुना करते थे

पिताजी से

पंचतंत्र की कहानियाँ और

आज़ादी के शहीदों की

शहादत के किस्से।

आखिर,

हमें ही तो रखना है रोशन

उस शहादत की विरासत को?

 

क्या जरूरत है

कई रंग-बिरंगे झंडों की

वतन की फिजा में?

आखिर,

किसी को क्यूँ

इन झंडों का रंग

अपने तिरंगे में नज़र नहीं आता?

 

रंगों की बात चली है

तो यह पूछना भी है वाजिब

कि क्या काले रंग और काली स्याही

के मायने भी बदल गए हैं?

 

स्याही किसी भी रंग की क्यों न हो

कलम का तो काम ही है

हर हाल में चलते रहना।

आखिर क्यूँ और कैसे

कोई रोक पायेगा

किसी को आईना दिखाने से?

 

ज़िंदगी की राह में पड़ने वाले

हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च

और पीर पैगंबर की मजार पर भी

बचपन से माथा टिकाया था।

एक दिन

पिताजी ने बताया था कि

उसी राह पर पड़ती है

अमर शहीदों की समाधि !

 

काश!

कोई एक ऐसा भी प्रार्थनास्थल होता

भारत का भारत में

इंसानियत का

जो गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल होता।

जो सारी दुनिया के लिए मिसाल होता।

 

हम अपने-अपने घरों में

भले ही किसी भी मजहब को मानते

किन्तु,

इस प्रार्थनास्थल में आकर

साथ उठते, साथ बैठते

साथ-साथ याद करते

साथ-साथ नमन करते

वतन पर मर मिटने वालों को।

 

प्रार्थना करते इंसानियत की

और

प्रार्थनास्थल की छत के नीचे

सिर्फ एक ही मजहब को मानते

इंसानियत, इंसानियत और इंसानियत!

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Prabha Sonawane

बहुत सुन्दर, इन्सानियत की कविता ।