श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “पहली पसंद*”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 13 ☆
☆ पहली पसंद ☆
आदि काल से ही राजाओं के दरबार में चाटुकारों का बाहुल्य रहा है । जिस तरह एक कुशल सेनापति सेना को संभाल सकता हैं , योग्य मंत्री राज्य को सुचारू रूप से संचालित कर उसके आय- व्यय का ब्यौरा रख , कोष हमेशा भरा रखता है, इसी तरह भाट हमेशा राजा की वंशावली का गुणगान सर्वत्र करता है । अब बात आती चाटुकार की; ये तो सबसे जरूरी होते हैं । सच कहूँ तो जिस प्रकार उत्प्रेरक, रासायनिक पदार्थों की क्रियाशीलता को बढ़ाते हैं, एपीटाइजर भूख को बढ़ाते हैं ठीक वैसे ही राजा को क्रियाशील बनाने हेतु चाटुकार कार्य करते हैं ।
मानव का मूल स्वभाव है कि जब कोई प्रशंसा करता है तो मानो पंख ही लग जाते हैं । चाटुकार एक ऐसा पद है जिसकी कोई नियुक्ति नहीं होती फिर भी सबकी नियुक्तियों में उसका ही हाथ होता है । नीति निर्माताओं की पहली पसंद यही होते हैं क्योंकि इनके पास विशाल जनमत होता है । यदि दरबार को सजाना, सँवारना है तो दरबारी होने ही चाहिए और वो भी विश्वास पात्र । इन सबको जोड़ने का कार्य चाटुकार से बेहतर कौन करेगा । राय देने में तो इनको इतनी महारत हासिल होती है कि लगता है बस ये पूरी दुनिया केवल और केवल इन्होंने ही बनाई है ।
कोई भी राजा बनें चाटुकार तो हर हालत में खुश रहते हैं । चाटुकारों की उपयोगिता इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि बहुत से ऐसे लोग भी होते हैं जो सत्यवादी बनने की होड़ में कुछ ज्यादा ही जोड़- तोड़ कर बैठते हैं और फिर औंधे मुख गिरते हुए बचाओ – बचाओ की गुहार लगाते हैं । कुछ लोग तो इतने जिद्दी होते हैं कि बस सत्य का ही राग अलापेंगे न समय देखते हैं न व्यक्ति । ऐसे कठिन समय में यदि कोई जीवन दायक बन कर उभरता है तो वो चाटुकार ही होता है; जिसे चाहो न चाहो चाहना ही पड़ता है ।
जीवन का ये भी एक कड़वा सत्य ही है कि हर व्यक्ति कहता है कि आप मेरे दोष बताइये किन्तु जैसे ही सत्य निंदा की पोषाक पहन कर सामने आया कि – बिन पानी बिन साबुना निर्मल करे सुहाय की निर्मलता कोसो दूर चली जाती है । आप खुद ही सोचिए कि निंदा में अगर रस होता तो व्याकरण में रस की श्रंखला में वात्सल्य को तो दसवां रस मानने हेतु वैयाकरण राजी हुए किन्तु निंदा रस को क्यों नहीं माना ।
कारण साफ है करनी और कथनी में अंतर होता है । जब तक निंदा दूसरे की करनी हो वो भी पीठ पीछे तभी तक इसमें रस उतपन्न होता है । व्यक्ति के सामने करने पर रौद्र व वीभत्स के संयोग रस की उतपत्ति हो जाती है ।
आज तक का इतिहास उठा कर देख लीजिए किसी भी शासक ने निंदक को अपनी कार्यकारिणी में नहीं रखा , हाँ इतना जरूर है कि चाहें कोई भी काल रहा हो यहाँ तक कि गुलामी के दौर में भी बस आगे बढ़े हैं तो केवल चाटुकार ही । बढ़ना ही जीवन है तो क्यों न इस गति को बरकरार रखते हुए चिंतन करें कि हम किस ओर जा रहे हैं ।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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