हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 37 ☆ लघुकथा – सदा सुहागिन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री के मर्म पर विमर्श करती लघुकथा  सदा सुहागिन। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 37 ☆

☆  लघुकथा – सदा सुहागिन

लंबी छरहरी  काया,  रंग गोरा, तीखे नाक- नक्श, दाँत कुछ आगे निकले  हुए थे लेकिन उनकी मुस्कान के पीछे छिप जाते थे. वह सीधे पल्लेवाली साडी पहनती थीं, जिसके पल्लू से उनका सिर हमेशा ढका ही रहता. माथे पर लाल रंग की मध्यम आकार की बिंदी और मांग सिंदूर से  भरी  हुई.  पैरों में चाँदी की पतली – सी पायल, कभी- कभार  नाखूनों में लाल रंग की नेलपॉलिश भी लगी होती,   इन सबको  सँवारती थी उनकी मुस्कुराहट . मिलने पर वे अपनी चिर परिचित   मुस्कान के साथ कहती – कइसन बा बिटिया?  एक नजर पडने पर पंडिताईन भारतीय संस्कृति के अनुसार  सुहागिन  ही कहलायेंगी.

हर दिन की तरह वह सुबह भी थी, सब कुछ वैसा ही था लेकिन पंडिताईन के लिए मानों दुनिया ही पलट गई. पूरा घर छान मारा, खेतों पर भी दौडकर देख आई, आसपास पता किया पर पंडित का कहीं पता ना चला.वह समझ  ना पाई कि धरती निगल  गई कि आसमान खा गया. बार -बार खटिया पर हाथ फेरकर बोलती – यहीं तो सोय रहे हमरे पंडित, कहाँ चले गए. महीनों पागल की तरह उन्हें ढूंढती रही,  कभी गंगा किनारे, कभी मंदिरों में.बाबा,फकीर कोई नहीं छोडा. एक बार तो किसी ढोंगी बाबा के  कहने पर  पंडित का एक  कपडा  लेकर उसके पास  पहुँच गई. बाबा पंडित के बारे में तो क्या बताता पंडिताईन से पैसे लेकर  चंपत हो गया. उसके बाद से पंडिताईन ने  पंडित को ढूंढना छोड दिया. उन्होंने  मान लिया कि वह  सुहागिन हैं और अपने रख – रखाव से गांववालों को जता भी दिया.

पंडिताईन ने  अपने मन को समझा लिया, जरूरी भी था वरना छोटे – छोटे   बच्चों को  पालती कैसे ? खेत खलिहान कैसे संभालती. लेकिन गांववालों को चैन कहाँ. सबकी नजरें पंडिताईन के सिंदूर और बिछिया पर अटक जाती. एक दिन ऐसे ही किसी की बात कानों में पड गई – ‘ पति का पता नहीं और पंडिताईन जवानी में सिंगार करे मुस्काती घूमत हैं गाँव भर मां ‘. पंडिताईन  की आँखों में आँसू आ गए बोलीं- बिटिया! ई बतावा इनका का करे का है ? हमार मरजी हम सिंगार करी या ना करी ? हम सिंदूर लगाई, पाजेब पहनी कि  ना  पहनी ? जौन सात फेरे लिया रहा ऊ मालूम नहीं कहाँ  चला गवा हमका छोडकर,  तो ई अडोसी – पडोसी कौन हैं हमें बताए वाले.  मांग में लगे सिंदूर की ओर इशारा करके बोलीं –‘ जब  तलक हम जिंदा हैं तब तलक ई मांग में रही, हमरे साथ हमार सुहाग जाई.’

पंडिताईन सुहागिन हैं या नहीं, वह विधवा की तरह रहे या नहीं  ?  पंडिताईन ने किसी को यह तय करने का अधिकार दिया ही नहीं.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

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